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Showing posts from March, 2021

दिल ही तो है

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   खुशी देख थोड़ा चहक गया, प्यार में थोड़ा बहक गया,  तो मैं क्या करूं?,दिल ही तो है। माना हिमालय था, हिम बन पिघल गया, सागर से मिलने को गंगा बन मचल गया, नदी बन बह गया ,तो मैं क्या करूं? दिल ही तो है। मिले हज़ारों दीवाने, बने रहे जो परबाने। तेरे सिवा कोई और न भाया,तो मैं क्या करूं?  एक आये एक जाये ,सराय तो  नहीं,  दिल ही तो है। मोर भी मिला और चातक भी, हंस भी मिला और जातक भी, गधा ही मन को भाया तो मैं क्या करूं? दिल ही तो है।  सरला भारद्वाज (पथिक) 24/3/21/4:00/pm

होली में तन मन सब रंग लूं

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    मन रंगा है ,रंग में तेरे , तन भी मेरा रंग दे, है नशा, पहले ही ,  थोड़ी प्यार की भी भंग दे। ओंठ की लाली से, गालों पै, जरा सा रंग मल दे, मधुकलश   में घोल केशर ,धार पिचकारी का बल दे, घेर ले तू गैल मेरी, मैं कही जाने न पाऊं।     ठिठुरता भीगा बदन ले ,टूट कर बाहों में आऊं। उष्ण स्वांसो  की तपिश से, शीत मेरा दूर कर दे।  चुम्बनों के मधुर रस से,इस हृदय को तृप्त कर दे। तू बजा मिरदंग,मेरी सांस केवल फाग गायें।  भूल के शिकवे  शिकायत ,मधु मिलन का राग गायें। उम्र थोडी  ही बची है, झूम के होली मनायें   है भरोसा   वक्त  का क्या? फिर कभी मिलने न पायें। रंग दे रंग  रंगरेजवा , चूनर उमर को रंग दे। आ चुके पतझड़ है,कितने? जीने का भी ढंग दे। इस बरस बरसाने आजा, कुछ पलों का संग दे। रंग दे मुझको संवरिया   अपने रंग में रंग दे।    सरला भारद्वाज २२/३)२/११/रात्रि

सभ्यता और संस्कृति

 #सभ्यता और #संस्कृति पर माता कैकई और पुत्र श्रीराम के बीच एक संवाद #रामराज्य से-  —————-//—————-//—————-  कैकेयी को इस पूरी चर्चा में रस आने लगा था, वे राम के चित्त और चिंतन की गहराई से अभिभूत थीं। उन्होंने राम को थोड़ा और खोलने की मंशा से राम के समक्ष प्रश्न रख दिया- राम संसार में सदा ही संस्कृति को लेकर विवाद होता रहता है, जबकि देखा जाए तो संस्कृति हो या सभ्यता ये विवाद के नहीं संवाद के हेतु होते हैं।  राम अपनी माँ कैकेयी के मंतव्य को बहुत अच्छे से समझ रहे थे। वे जान रहे थे की कैकेयी इस प्रश्न के माध्यम से स्वयं की शंका का निवारण नहीं चाहतीं, अपितु वे चाहती हैं कि राम स्वयं ही बहुत सूक्ष्मता से अपनी विचारधारा का अन्वेषण करे। क्योंकि कोई भी कर्म तब अधिक लाभदायक होता है जब उसे करने से पहले उसके सभी पक्षों पर समग्रता से विचार किया गया हो। प्रत्येक माँ चाहती है कि उसकी संतान द्वन्द से रहित हो इससे उसके मन, वचन, कर्म में एकरूपता आ जाती है, तब उसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता।  राम अपनी माँ कैकेयी के उद्देश्य को जान परम संतोष से भरे हुए बोले- माँ, सभ्यता इस तथ्...

हाले दिल सुनायें?

 सच कहें या चुप रह जायें? कैसे तुम्हें हाले दिल सुनायें? घावों को उधेड़े या ,चुप्पी की बैंडेज लगायें? सच कहें या चुप रह जायें? तड़प क्या कहना , मिलना तो हम भी चाहते हैं। शक्ल को कहां रख दें, अपनी मनहूसियत से कतराते हैं। इस मनहूसियत की वज़ह से सालों फोन नहीं आते हैं। हमेशा गुदगुदाने वाले, पल पल हमें रूलातें हैं। तड़पा के मारने के लिए नम्बर ब्लाक  हो जाते हैं, और फिर एक दिन अचानक  प्यार के बादल उमड़ आते हैं। अचानक बदले अपने जनाब हमें कंफ्यूजिया  जाते है? तन्हाइयों में गीत मिलन के गाये हैं, ठोकर खाकर ही तो बेहोशी से होश में आये हैं, गले लगाकर शुक्रिया भी करना चाहते हैं,  सरल से जटिल तुमने ही तो बनाये हैं। प्यार तो तब भी था और अब भी है, कैसे तुम्हें समझायें। सच कहें या चुप रह जायें।

अमर कहानी संदेश गीत

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  राम की भरत की महिमा सदियों ने जानी,  लेकर के आए आज अमर कहानी।  १.हम है छात्र एस. वी. एम. के, गायें पावन गाथा , भरत राम प्रेम पर झुकाए जग माथा  रघुकुल के दीप दोनों धीर वीर ज्ञानी।                 लेकर के आये आज अमर कहानी। २. भरत जैसा  भ्रातभाव  मन में जो जागै, कलुषक्लेश  दुनिया का घर -घर से भागै, पढि लेउ जो, गुनि लेउ जो , रामचरित वानी।       लेकर के आये आज अमर कहानी। ३.डाक्टर बनाओ चाहे इंजीनियर बनावौ राम के चरित की थोड़ी घुट्टी भी पिलावौ जाग जाओ! मम्मी -पापा, जागो !दादी नानी। लेकर के आये आज अमर कहानी। सरला भारद्वाज १९/३/२१ /१:४०pm  

भरत विरह वचन

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  राम जैसौ भैया मेरौ, सीता जैसी माइ,  हाय मेरे जियरा की जरनि ना जाइ। १*कुल कलंक मो सम नहिं कोई, पहले भयौ न कबहू होई, पिता मरन भ्राता बनवासी दोऊ दोषन कौ मैं अपराधी। बन बन भटकत मेरी सीता जैसी माइ, हाय मेरे----  २*पंख बिना कैसें उडिजाऊं, रूठे भैयनु कैसै मनाऊं, एकहू न जुगति न मन ठहरावै, कहा करूं कछु समझ न आवै। रौबै अयोध्या नगरी,करै हाइ! हाइ! हाय मेरे जियरा की जरनि ना जाइ। सरला भारद्वाज (पथिक) १९/३/२१ /१:००pm

मेरा क्या कसूर है?

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  तेरे नैनौं में दो तार सनेह के चाहे थे, तू मुदित हो और मैं गाऊं, यही सपने सजाए थे। मेरे मीठे सपने तेरे मन को ना भाये, तो मेरा  क्या कसूर है? धड़कनें हर पल तेरा ही  नाम रटतीं हैं, दरस की प्यासी आंखें, निशिदिन बरसतीं हैं।  सांसें निगोडी जो विरह में तपाये ,तो मेरा  क्या कसूर है? चिर अपलक पल्के मेरी ,  तनिक ना झपकतीं हैं,  शिवलिंग के घट सदृश,अनवरत टपकतीं हैं,   मेरी आंखों से जो नींद रूठ जाये,तो मेरा  क्या कसूर  है? पल -पल ये हृदय मेरा तरंगित क्यों होता? जिसके लिए इतना तड़प तड़प रोता है? उसे तडप दिल की समझ  में न आये,तो मेरा  क्या कसूर है? उसकी निठुराई हमें जीने और मरने  न देती है, और ये जालिम दुनिया हमें, रोने भी न देती है, खुश्क हंसी दिल  मेरा हंस ही ना पाये,तो मेरा क्या कसूर है? इकतरफा प्यार में बस  ग़म ही पिये जाते हैं। झूठी उम्मीदों पर, बस    हम जिये जाते  हैं, दर्द भरे दिल से जो  आह निकल जाये ,तो मेरा  क्या कसूर  है?  आशाओं की लाशों की कब्र मत उघाड़ना, बदबू ही उठती है, नक़ाब न...

विरहा

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   बहुत बड़ी  लिस्ट न थी मेरी  ख्वाहिशों की, तुम से ही शुरू थी और तुम्ही पै खत्म थी। उस लिस्ट को बुद्धि समेट कर रखलेना चाहती है। पर धड़कनों को  ये बात कहां समझ आती है। सोचते थे हम कि ये सब तुम जानते होंगे,  तुम भी मुझे मेरी तरह अपना मानते होंगे। तुम्हारे भी नयन तन्हाई में,बरसते होंगे, मेरी ही तरह तुम भी तड़पते होंगे। एक झलक और आहट के लिए, आंख और कान तरसते होंगे, सपनों में मुझे पाकर थोड़े  तुम  भी हरषते होंगे। पर अब पता चला कि ये लिस्ट तो मेरी है, पढे या न पढे ये मर्जी तो तेरी है। ये आशा -निराशा,ये बेचैनी और तड़प सिर्फ और सिर्फ मेरी है, दिल तो मेरा खोया है ,ऊसर में प्रेम बीज मैंने ही तो बोया है। काश जमीन में विश्वास का खाद डाल दिया होता, व्यर्थ गया बीज वृक्ष बन गया होता। मेरी पीड़ा मेरी पुकार ना समझता वो गालियां। वक्त भी न बजाता मेरी खूबसूरत भूल पै तालियां। लालच बुरी बला है, दिल ये खूब जानता है, ढीट भी ये  निगोडा ,पराई चीज को अब भी अपना मानता है। प्यारी सी भूल पै सिर पटक पटक पछताता है, मेरा है तू मेरा है तू कह कर ख़ुद को भरमाता है । मोह ना हो ...

विश्व महिला दिवस पर,,नारी हूं मैं।

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 विश्व महिला दिवस पर विशेष 🙏🙏🙏 शुभकामनाएं, नारी हूं मैं! हां नारी मैं! हर रूप में रहती भारी मैं! ममता हूं बस समता चाहूं, उत्थान हेतु अवतारी मैं! मैं मैं का भाव न भाता है, कुछ सोये मनुज जगाती मैं! बस गीत त्याग के गाती मैं! जीवन का अलख जगाती मैं! उत्थान हेतु अवतारी मैं! हरियाली की क्यारी हूं मैं! सहृदय कहें प्यारी हूं मैं! अनुसुइया भी सीता भी मैं! तप तेज भरी दृष्टि हूं मैं! जग जीवन की सृष्टि हूं मैं! उत्थान हेतु अवतारी मैं! नारी हूं मैं! जब आन पुकारे राज धर्म! बन जाती जीजा पन्ना मैं! अड़ जाती हूं यम के सम्मुख! बन जाती हूं सावित्री मैं! आये जो आंच अस्मिता पै बन जाती हूं ज्वाला भी मैं! दामिनी भी हूं अतिवृष्टि मैं! उत्थान हेतु अवतारी मैं! नारी हूं मैं! लोपा मुद्रा घोषा हूं मैं, गार्गी भी हूं, कौशल्या भी, मैं बृजरानी राधा भी हूं! पर हूं मदांध की ब्याधा भी। चित्रा हूं काली दुर्गा मैं! चेनम्मा लक्ष्मीबाई भी। कल्पित सपने को सच करती, उन्मुक्त उड़ान नभ में भरती, खुश भी हूं मैं , संतुष्ट हूं मैं! हर रचना में समिष्ट हूं मैं! उत्थान हेतु अवतारी मैं! नारी हूं मैं! सरला भारद्वाज ८/३/२१सायं ५:२०...

समझ की समझ का भ्रम

 हम तो उसको गुनाहगार ही समझते रहे  पर वो बड़ा मासूम है। समझ  न पाये हम उसको, दिल मेरा मरहूम है। क्यों लगा बैठा दिल उससे ,समझदारी की आशा। सिखाई ही नहीं गयी जिसे,सही गलत की परिभाषा। परिवार की परिवरिश के पालने में झमेला था, हिला मिला था ना किसी से, खेला सदा अकेला था। सही और गलत सिखाया था ना  जिसे, भावनाओं का आदर्श आइना दिखाया था ना जिसे। बाप के बेटी न थी,  कोई उसकी बहन न है, बस यही कारण उसे ,मन के धागों की समझ न है। है जरा सा सत्य ,जो उसके कथन में, फिर भयानक इससे क्या होगा चमन में। आहार ,नींद,और भय लिप्सा, जीवन का अर्थ उसकी नजर में। दूजी  दुनिया का प्राणी वह, जन्मा ही न हो ज्यों किसी गांव शहर में। उरेका समझदार शब्द जो ,लो जी  पटल से मिटा दिया हमने,  वो ज़ालिम मासूम  है चित्त पै लिख दिया  हमने। था कभी जो विश्वास और प्रेम का पात्र, बेवजह ही बन गया था कोप भाजन। आज है बस वो दया का पात्र , न मीत न अरि न पतझड़ न सावन। खरपतवार सा ,मासूम वह बन  गया था मीत मेरा। बन गया है दिल की दवा अब, जीवन में डाले डेरा।  सरला भारद्वाज  4/3/21

भरत का आदर्श भ्रात प्रेम (लघु नाटिका)

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    सिया राम मय सब जग जानी।  करहु प्रणाम जोर जुग पानी ।। समस्त साहित्य प्रेमियों को सरला भारद्वाज का का सादर नमन। आज प्रस्तुत हूं जीवन का सर्वोच्च आदर्श स्थापित करने वाले परम पवित्र रामचरितमानस के एक प्रसंग को लेकर और वह प्रसंग है, भ्रात प्रेम की पराकाष्ठा का आदर्श प्रस्तुत करने वाला प्रसंग, भरत मिलाप । आज परिवारों में भाई भाई के बीच जो स्थिति पैदा हो रही हैं। उसका एक मात्र समाधान है परिवार में राम चरित मानस की अनवरत घुट्टी। मां के उर्वर लालन-पालन मेंजब संस्कारों  का खाद लगाया जाता रहेगा तो हर बालक वैचारिक और नैतिक भावनात्मक रूप से स्वस्थ और परिपक्व होगा । परिवार की आधार शिला हर घर के मंदिर में होनी चाहिए।जो मंदिर से मन के मंदिर तक पहुंचनी चाहिए। हर व्यक्ति के निर्माण का मूल मंत्र इसी में मिलता है।  परिवार धर्म हो या राजधर्म हो,या समाज धर्म हो या फिर राष्ट्र धर्म ,या विश्व धर्म सब की पाठशाला है रामचरितमानस। बात भ्रात धर्म है तो आइये, इस प्रसंग से आप सभी को भरत की भावनाओं से जोड़ने का प्रयास करने के लिए सर्वप्रथम प्रस्तुत है, एक भजन । तत्पश्चात जुड़ेंगे हम उस प्र...

व्यवहार का कुआं

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  व्यवहार का कुआं हूं मैं, जिसने जैसे पुकारा , मैंने वही सुर दुहराया।   1.     मेरी मठ पर बैठ, किसी ने कहा राम राम,   पूछा उसने कैसे हो तुम ?और क्या कर रहे हो काम?     भाव से  कृपण नहीं मैं, सरस जल ले लाया। व्यवहार का कुआं हूं मैं, जिसने जैसे पुकारा , मैंने वही सुर दुहराया।   2. फैंक रहा था कोई ,पत्थर कीचड़ भरे, मेरे भी ज़रा कान,👂 हो गये थे खड़े। दुर्गंध युक्त जल का ही  ,फल उसने पाया। व्यवहार का कुआं हूं मैं, जिसने जैसे पुकारा , मैंने वही सुर दुहराया। 3.हृदयतल में   उतरा वो  ,सहज घुंघरू बांध के। गुनगुनाया प्रेम राग ,पंचम सुर लांघ के, मैंने भी डुबुक- डुबुक  प्रीति गीत गाया। व्यवहार का कुआं हूं मैं, जिसने जैसे पुकारा , मैंने वही सुर दुहराया। सरला भारद्वाज  3/3/21/  6:40pm

नैना लड़ाने जी चाहता है।

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१.होठ हैं तुम्हारे या  , पंखुड़ीं पलाश की, लाली चुराने को, जी चाहता है। बन जाऊं तेरे मुख की मुरलिया, जी भर के गाने को, जी चाहता है। २. नैनों में मेरे, बसा  तू सवरियां  नैनों में बसने को जी चाहता है। जादूई नैनों वाले , बांके बिहारी, काजल बनजाने को जी चाहता है। ३.तिरछी चितवन वाले ,चितचोर छलिया, नैना लड़ाने को जी चाहता है, तेरे भरोसे, पै पी जाऊं प्याले, मीरा बनजाने को जी चाहता है। ४.दिल में धड़कने वाले,चितचोर मोहन, उर  से लिपटने को जी चाहता है। गुंजा बनूं या बैजन्तीमाला,  गलमाल बनने को जी चाहता है। ५.कमल से ये चरण तेरे, लिपट जाऊं इनसे, बृज रज बन  जाने को जी चाहता है। होने ना पाऊं ,दूर कभी इनसे, पायल बन जाने को ,जी चाहता है। ६.बहता है तू ही, मेरी रगों में,  बह जाऊं तुझमें  ही,जी चाहता है।  खुद को मिटा के पा लूंगी तुझको, मक्खन बन जाने को जी चाहता है। ७.जीवन का राग तूही, मेरे सांवरिया,  रागिनी बन जाने को, जी चाहता है। सरला का मन , मोहने वाले मोहन, मोहिनी बन जाने को जी चाहता है। ****************************************************  सरला भा...

तुम ही तुम

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अंदाज़ बयान कर रहा तुम्हारा,कोई नहीं तुम्हारे हम! पर कमबख्त दिल समझता ही नहीं,  खुद को जो तुम्हारा मान बैठे हैं हम! मेरे उजले धवल मन पर ,ऐसा श्याम रंग चढ़ा है तुम्हारा, इस जनम में तो ना छुड़ा पायेंगे हम! लाख मल मल के तेरी,प्रीत नदी में ही तो नहायेगें हम। टूट भले ही जायें, बिखर नहीं सकते हम! बुत परस्त हैं जी, भावनाओं के बुत बनाने लगे हैं हम! अधिक क्या कहे साहिब, बुत में ही ढलने लगे हैं हम! छाछ को लूटने वाले छलिया हो तुम , मन मोहा तो मनमोहना मान बैठा   मेरा मन, मोहन नहीं,मोह ना हो, जान गये हैं हम! उफनती है अश्कों की धारा से यमुना, और तुम तो भेजते हो, गूढज्ञान का गहना, बृज को बचाने को बांध लगाओगे ,आस लगाए थे हम! जानते हैं, भावनाओं को पढने का हुनर नहीं तुम में, भावनाओं के कागजों  की पतंग उडाने लगे हैं हम! हर कागज में तुम्हे आजमाने लगे हैं हम! सरला भारद्वाज 27/2/21