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दिल ही तो है

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   खुशी देख थोड़ा चहक गया, प्यार में थोड़ा बहक गया,  तो मैं क्या करूं?,दिल ही तो है। माना हिमालय था, हिम बन पिघल गया, सागर से मिलने को गंगा बन मचल गया, नदी बन बह गया ,तो मैं क्या करूं? दिल ही तो है। मिले हज़ारों दीवाने, बने रहे जो परबाने। तेरे सिवा कोई और न भाया,तो मैं क्या करूं?  एक आये एक जाये ,सराय तो  नहीं,  दिल ही तो है। मोर भी मिला और चातक भी, हंस भी मिला और जातक भी, गधा ही मन को भाया तो मैं क्या करूं? दिल ही तो है।  सरला भारद्वाज (पथिक) 24/3/21/4:00/pm

होली में तन मन सब रंग लूं

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    मन रंगा है ,रंग में तेरे , तन भी मेरा रंग दे, है नशा, पहले ही ,  थोड़ी प्यार की भी भंग दे। ओंठ की लाली से, गालों पै, जरा सा रंग मल दे, मधुकलश   में घोल केशर ,धार पिचकारी का बल दे, घेर ले तू गैल मेरी, मैं कही जाने न पाऊं।     ठिठुरता भीगा बदन ले ,टूट कर बाहों में आऊं। उष्ण स्वांसो  की तपिश से, शीत मेरा दूर कर दे।  चुम्बनों के मधुर रस से,इस हृदय को तृप्त कर दे। तू बजा मिरदंग,मेरी सांस केवल फाग गायें।  भूल के शिकवे  शिकायत ,मधु मिलन का राग गायें। उम्र थोडी  ही बची है, झूम के होली मनायें   है भरोसा   वक्त  का क्या? फिर कभी मिलने न पायें। रंग दे रंग  रंगरेजवा , चूनर उमर को रंग दे। आ चुके पतझड़ है,कितने? जीने का भी ढंग दे। इस बरस बरसाने आजा, कुछ पलों का संग दे। रंग दे मुझको संवरिया   अपने रंग में रंग दे।    सरला भारद्वाज २२/३)२/११/रात्रि

सभ्यता और संस्कृति

 #सभ्यता और #संस्कृति पर माता कैकई और पुत्र श्रीराम के बीच एक संवाद #रामराज्य से-  —————-//—————-//—————-  कैकेयी को इस पूरी चर्चा में रस आने लगा था, वे राम के चित्त और चिंतन की गहराई से अभिभूत थीं। उन्होंने राम को थोड़ा और खोलने की मंशा से राम के समक्ष प्रश्न रख दिया- राम संसार में सदा ही संस्कृति को लेकर विवाद होता रहता है, जबकि देखा जाए तो संस्कृति हो या सभ्यता ये विवाद के नहीं संवाद के हेतु होते हैं।  राम अपनी माँ कैकेयी के मंतव्य को बहुत अच्छे से समझ रहे थे। वे जान रहे थे की कैकेयी इस प्रश्न के माध्यम से स्वयं की शंका का निवारण नहीं चाहतीं, अपितु वे चाहती हैं कि राम स्वयं ही बहुत सूक्ष्मता से अपनी विचारधारा का अन्वेषण करे। क्योंकि कोई भी कर्म तब अधिक लाभदायक होता है जब उसे करने से पहले उसके सभी पक्षों पर समग्रता से विचार किया गया हो। प्रत्येक माँ चाहती है कि उसकी संतान द्वन्द से रहित हो इससे उसके मन, वचन, कर्म में एकरूपता आ जाती है, तब उसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता।  राम अपनी माँ कैकेयी के उद्देश्य को जान परम संतोष से भरे हुए बोले- माँ, सभ्यता इस तथ्...

हाले दिल सुनायें?

 सच कहें या चुप रह जायें? कैसे तुम्हें हाले दिल सुनायें? घावों को उधेड़े या ,चुप्पी की बैंडेज लगायें? सच कहें या चुप रह जायें? तड़प क्या कहना , मिलना तो हम भी चाहते हैं। शक्ल को कहां रख दें, अपनी मनहूसियत से कतराते हैं। इस मनहूसियत की वज़ह से सालों फोन नहीं आते हैं। हमेशा गुदगुदाने वाले, पल पल हमें रूलातें हैं। तड़पा के मारने के लिए नम्बर ब्लाक  हो जाते हैं, और फिर एक दिन अचानक  प्यार के बादल उमड़ आते हैं। अचानक बदले अपने जनाब हमें कंफ्यूजिया  जाते है? तन्हाइयों में गीत मिलन के गाये हैं, ठोकर खाकर ही तो बेहोशी से होश में आये हैं, गले लगाकर शुक्रिया भी करना चाहते हैं,  सरल से जटिल तुमने ही तो बनाये हैं। प्यार तो तब भी था और अब भी है, कैसे तुम्हें समझायें। सच कहें या चुप रह जायें।

अमर कहानी संदेश गीत

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  राम की भरत की महिमा सदियों ने जानी,  लेकर के आए आज अमर कहानी।  १.हम है छात्र एस. वी. एम. के, गायें पावन गाथा , भरत राम प्रेम पर झुकाए जग माथा  रघुकुल के दीप दोनों धीर वीर ज्ञानी।                 लेकर के आये आज अमर कहानी। २. भरत जैसा  भ्रातभाव  मन में जो जागै, कलुषक्लेश  दुनिया का घर -घर से भागै, पढि लेउ जो, गुनि लेउ जो , रामचरित वानी।       लेकर के आये आज अमर कहानी। ३.डाक्टर बनाओ चाहे इंजीनियर बनावौ राम के चरित की थोड़ी घुट्टी भी पिलावौ जाग जाओ! मम्मी -पापा, जागो !दादी नानी। लेकर के आये आज अमर कहानी। सरला भारद्वाज १९/३/२१ /१:४०pm  

भरत विरह वचन

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  राम जैसौ भैया मेरौ, सीता जैसी माइ,  हाय मेरे जियरा की जरनि ना जाइ। १*कुल कलंक मो सम नहिं कोई, पहले भयौ न कबहू होई, पिता मरन भ्राता बनवासी दोऊ दोषन कौ मैं अपराधी। बन बन भटकत मेरी सीता जैसी माइ, हाय मेरे----  २*पंख बिना कैसें उडिजाऊं, रूठे भैयनु कैसै मनाऊं, एकहू न जुगति न मन ठहरावै, कहा करूं कछु समझ न आवै। रौबै अयोध्या नगरी,करै हाइ! हाइ! हाय मेरे जियरा की जरनि ना जाइ। सरला भारद्वाज (पथिक) १९/३/२१ /१:००pm

मेरा क्या कसूर है?

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  तेरे नैनौं में दो तार सनेह के चाहे थे, तू मुदित हो और मैं गाऊं, यही सपने सजाए थे। मेरे मीठे सपने तेरे मन को ना भाये, तो मेरा  क्या कसूर है? धड़कनें हर पल तेरा ही  नाम रटतीं हैं, दरस की प्यासी आंखें, निशिदिन बरसतीं हैं।  सांसें निगोडी जो विरह में तपाये ,तो मेरा  क्या कसूर है? चिर अपलक पल्के मेरी ,  तनिक ना झपकतीं हैं,  शिवलिंग के घट सदृश,अनवरत टपकतीं हैं,   मेरी आंखों से जो नींद रूठ जाये,तो मेरा  क्या कसूर  है? पल -पल ये हृदय मेरा तरंगित क्यों होता? जिसके लिए इतना तड़प तड़प रोता है? उसे तडप दिल की समझ  में न आये,तो मेरा  क्या कसूर है? उसकी निठुराई हमें जीने और मरने  न देती है, और ये जालिम दुनिया हमें, रोने भी न देती है, खुश्क हंसी दिल  मेरा हंस ही ना पाये,तो मेरा क्या कसूर है? इकतरफा प्यार में बस  ग़म ही पिये जाते हैं। झूठी उम्मीदों पर, बस    हम जिये जाते  हैं, दर्द भरे दिल से जो  आह निकल जाये ,तो मेरा  क्या कसूर  है?  आशाओं की लाशों की कब्र मत उघाड़ना, बदबू ही उठती है, नक़ाब न...