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तू समझता है कि बस औरत हूं मैं

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ममता हूं, प्रेम का मूर्त रूप हूं मैं, और तू समझे कि बस औरत हूं मैं। सरल रास्तों पै ही आता है ,मुझे चलना, और तुझे आता है, पग पग पर छलना। भूल भी न सकूं, माफ भी न कर पाऊं मैं, महान भी नही, बेचारी भी नहीं, बस इंसान हूं मैं । और तू समझे कि बस औरत हूं मैं।। घाव लेकर  भी तुझसे, तुझे सुखी देखना चाहती हूं, खुद को दर्द देकर, तेरा जहां आबाद देखना चाहती हूं। दिल है तेरा मुसाफ़िर खाना, मेरा मन तो एक मंदिर है, एक ही प्रतिमा के समक्ष, दीप जलाती हूं मैं। क्यों कि औरत हूं मै। ,और तू समझता है कि  बस औरत हूं मैं। दुनिया समझे कि महान था सिद्धार्थ, और मेरे प्रेम को समझे, जग मेरा स्वार्थ। जग क्या जाने , सिद्धार्थ तभी  तक है , जब तक यशोधरा हूं मैं। परित्यक्त यशोधरा होकर , तेरे यश की धरा हूं मैं। और तू समझे कि बस औरत हूं मैं। आसान है त्यागना जितना, निर्बहन उतना सरल नहीं, गटागट पी जायें जिसे,जीवन वो पेय तरल नहीं। सरल समझता है तू, यशोधरा होना, सब के लिए अपना, अस्तित्व खोना, दर्द के गहरे कुंए में पलकें भी न भिगोना। क्या बेजान कठपुतली हूं मैं। तू समझता है कि बस औरत हूं मैं। एक दिन के लिए ये औरत होना...

सूरज है तू

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   सूरज है तू, राजा है मनमर्जी का, न संध्या का न ऊषा का। सीमा भी कहां है तेरी, कल्पना से परे है तू। सूरज है तू।  सरल पथ पर  चलना तुझे गंवारा कहां, टिका रहे एक ही धुरी पर स्वभाव कहां, अनंत रश्मियों और ज्योती का स्वामी है तू। सूरज है तू। अनुपम उपमाओं से विभूषित,  फिर भी पराबैंगनी से प्रदूषित, कामनाओं का पोषक  रजनियों का शोषक है तू। सूरज है तू। अनगिनत तबुस्सुमों को सोख के , भर देता बदलियों के नयनों को जल से। दूर रहकर भी तपाता और तड़पाता है तू। सूरज है तू। सरला भारद्वाज 16/6./20

आयौ बसंत

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            आयौ बसंत आयौ बसंत,            मधुमय संदेशा लायौ बसंत।  महक उठे बन बाग बगीचा, चहुंओर नवरंग उलीचा। क्रूर कोरोना से मुक्ति को                         कोविशील्ड लायौ बसंत।                          आयौ बसंत आयौ बसंत। खुलने लगे बंद विद्यालय, गूंज उठे फिर से ज्ञानालय।  वाणी के अवतरण दिवस संग, ।                         फाग राग लायौ बसंत।                      आयौ बसंत आयौ बसंत ।  अमुंवा की डाली बौराई, देखि देखि कोयल इतराई। छेडी पंचम तान सुरों की, कुहुकि कुहुकि गावै बसंत। जन जन के मन भायौ बसन्त।                                  ‌सरला भारद्वाज १३-२-२१ पिछले वर्ष की स्वरमयी कोशिश...

मनचला भंवरा

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    कभी इस फूल पै ,कभी उस फूल पै, भंवरा तो मंडराते, हर फूल पै। जूही तो ये समझे ,छलिया  प्यार करता है,  प्यार के जो नाम को बेजार करता है । वासना  की वृत्ति  से ,प्रहार करता है,  कहता कि कलियों पै ,उपकार करता है। होवै ना अफसोस ,जिसे किसी भूल पै। भंवरा तो मडराये हर फूल पै। कलियां कुचल होवै , तृप्ति  उसकी  वार करना पींठ पर ही, वृत्ति  उसकी भावनाओं को जो, तार तार करता है। कहता है बाग को, बहार करता है। फूल है गुलाब का, पसंद उसको , करेगा ये शौक कभी, तंग उसको। पड़ जाएगा जो पंख ,कभी शूल पै। भंवरा तो मंडराये ,हर फूल पै। सरला भारद्वाज  10/2/10 https://youtu.be/CCrqvfIzOJk  दोस्तो अजीब संयोग है, अभी रिलीज हुआ यार मेरा तितलियां सांग मेरे द्वारा लिखित कविता और उसकी धुन से हूबहू मिलता है ।  जो मैंने 2010 में लिखी थी ।लिंक पर जाकर मैच कर सकते है।  

आभार

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खुल गयी पोल

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 ढोल ओ ढोल।                                   सरला भारद्वाज -५-२--२१ खुल गयी रे तेरी पोल। ऊपर से जितना सुघड़, चुस्त, दुरुस्त ,रंगीन,  कसा हुआ नियंत्रित दिखता है तू, अंदर उससे कहीं अधिक बदरंग और , खोखलेपन का है तुझ मैं झोल। ढोल ओ ढोल। खुल गयी रे तेरी पोल। समझें सब तेरी तिरकिट को,  जीवन में गति देने वाली।  लेकिन गुणी समझते हैं बस ताली ,खाली। तेरा अस्तित्व तो सधी अंगुलियों की थिरकन से है, और मस्तिष्क की सुंदर कल्पना शक्ति से है। गरवा नहीं, इतरा नहीं, अपने खोखले आदर्श का ढोल पिटपा नहीं। लयबद्ध यति,गति मम वृत्ति है, बलि लेकर आवरण ओढना तेरी प्रबृत्ति है। ऋण चुका पायेगा उसका,  बलि दे अपनी बन गयी  तेरा खोल। ढोल ओ ढोल। खुल गयी रे तेरी पोल। जिसे समझता है निज गुंजन। वो बलि की पीड़ा के बोल। ढोल ओ ढोल। खुल गयी रे तेरी पोल।

कुछ तो लोग कहेंगे (लोग क्या -क्या कहते हैं,, लो कर लो बात!)

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   आज रह रह के मन एक गीत गुनगुना रहा है। "कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।''   पर विचारणीय ये है कि ये कहना भी तो कुछ अर्थपूर्ण और तर्कसंगत हो।कोई भी ऐरा गैरा कुछ भी कह जायेगा और हम यों ही सुन लें मान लें।  मुश्किल भी है और------------  अब क्या बताये आपको,और  किस तरह लिखूं ये बात।क्यों  कि बात  है बड़ी अटपटी और बड़ी ही गरिष्ठ।हुआ यह कि धर्म और कर्म दोनों ही द्रष्टिकोण से हम ठहरे राम आदर्श अनुगामी।सो धर्म-कर्म क्षेत्र के निर्वहन हेतु सेवा सेतु मे गिलहरी सा पुण्य अर्जित करने हेतु निकल पड़े धनसंचयन हेतु,  व्यवस्था और योजना के अनुसार नगर आगरा में। श्रद्धालुओं की कमी न थीं उम्मीद से बढ़कर पुन्यात्माओं ने पुण्य कमाने का प्रयास किया, पर-- एक सज्जन अपने श्रद्धा सुमन  अर्पित करते हुए बोले-यह धन संग्रह तो आप उस चोर -मोदी के लिए कर रहे हो। कौड़ी सी हमारी आंखें आश्चर्य से फैल कर पकौड़ी सी हो गयी !हमने पूछा आपका क्या चुराया मोदी ने ? निर्लज्जता से लजाते हुए उन्होंने ने अपनी विद्वता  और बुध्दि की प्रखरता का उद्घोष करते हुए  ,साक्ष्य ...