खुल गयी पोल

 ढोल ओ ढोल।                                   सरला भारद्वाज -५-२--२१

खुल गयी रे तेरी पोल।


ऊपर से जितना सुघड़, चुस्त, दुरुस्त ,रंगीन,

 कसा हुआ नियंत्रित दिखता है तू,

अंदर उससे कहीं अधिक बदरंग और ,

खोखलेपन का है तुझ मैं झोल।

ढोल ओ ढोल।

खुल गयी रे तेरी पोल।

समझें सब तेरी तिरकिट को,

 जीवन में गति देने वाली।

 लेकिन गुणी समझते हैं बस ताली ,खाली।

तेरा अस्तित्व तो सधी अंगुलियों की थिरकन से है,

और मस्तिष्क की सुंदर कल्पना शक्ति से है।

गरवा नहीं, इतरा नहीं,

अपने खोखले आदर्श का ढोल पिटपा नहीं।

लयबद्ध यति,गति मम वृत्ति है,

बलि लेकर आवरण ओढना तेरी प्रबृत्ति है।

ऋण चुका पायेगा उसका, 

बलि दे अपनी बन गयी  तेरा खोल।

ढोल ओ ढोल।

खुल गयी रे तेरी पोल।

जिसे समझता है निज गुंजन।

वो बलि की पीड़ा के बोल।

ढोल ओ ढोल।

खुल गयी रे तेरी पोल।


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