चार्ली चैप्लिन यानी हम सब




पाठ का प्रतिपादय एवं सारांश


प्रतिपादय-हास्य फिल्मों के महान अभिनेता व निर्देशक चार्ली चैप्लिन पर लिखे इस पाठ में उनकी कुछ विशेषताओं को लेखक ने बताया है। चार्ली की सबसे बड़ी विशेषता करुणा और हास्य के तत्वों का सामंजस्य है। भारत जैसे देश में सिद्धांत व रचना-दोनों स्तरों पर हास्य और करुणा के मेल की कोई परंपरा नहीं है, इसके बावजूद चार्ली चैप्लिन की लोकप्रियता यह बताती है कि कला स्वतंत्र होती है, बँधती नहीं। दुनिया में एक-से-एक हास्य कलाकार हुए, पर वे चैप्लिन की तरह हर देश, हर उम्र और हर स्तर के दर्शकों की पसंद नहीं बन पाए। इसका कारण शायद यह है कि चार्ली ही वह शख्सियत हो सकता है जिसमें सबको अपनी छवि दिखती है, वे किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते।

सारांश-महान अभिनेता और निर्देशक चार्ली चैप्लिन की जन्मशती मनाई गई। इस वर्ष उनकी फ़िल्म ‘मेकिंग ए लिविंग’ के भी 75 वर्ष पूरे होते हैं। इतने लंबे समय से चार्ली दुनिया को मुग्ध कर रहा है। आज इसका प्रसार विकासशील देशों में भी हो रहा है। चार्ली की अनेक फ़िल्में या इस्तेमाल न की गई रीलें भी मिली हैं जो अभी तक दर्शकों तक नहीं पहुँचीं। इस तरह से चार्ली पर अगले पचास वर्षों तक काफ़ी कुछ कहने की गुंजाइश है। चार्ली की फ़िल्में भावना पर आधारित हैं, बुद्धि पर नहीं। मेट्रोपोलिस, द कैबिनेट ऑफ़ डॉक्टर कैलिगारी, द रोवंथ सील, लास्ट इयर इन मारिएनबाड, द सैक्रिफ़ाइस जैसी फ़िल्मों का आम आदमी से लेकर आइंस्टाइन जैसे महान प्रतिभा वाले व्यक्ति तक एक जैसा रसास्वादन करते हैं। इन्होंने न सिर्फ़ फिल्म-कला को लोकतांत्रिक बनाया, बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को भी तोड़ा। चैप्लिन की फ़िल्में यह दर्शाती हैं कि हर व्यक्ति में त्रुटि है।



चैप्लिन परित्यक्ता व स्टेज अभिनेत्री के पुत्र थे। उन्होंने भयानक गरीबी व माँ के पागलपन से संघर्ष किया तथा पूँजीपति व सामंतों से अपमानित हुए। इनकी नानी खानाबदोश थीं और पिता यहूदीवंशी थे। इन सबने चैप्लिन को घुमंतू चरित्र बना दिया। वे कभी मध्यवर्गी, बुर्जुआ या उच्चवर्गी जीवन-मूल्य न अपना सके। चार्ली की कला को देखकर फ़िल्म-समीक्षकों तथा फ़िल्म कला के विद्वानों ने माना कि सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते, अपितु कला स्वयं अपने सिद्धांत या तो लेकर आती है या बाद में उन्हें गढ़ना पड़ता है। देश-काल की सीमाओं को लाँघते हुए चार्ली सबको अपना लगते हैं।

दर्शक उनके किरदार में कभी स्वयं को देखता है, तो कभी अपने परिचित को। चालों ने भावना को चुना। इसके दो कारण थे। बचपन में जब वे बीमार थे तो उनकी माँ ने उन्हें बाइबिल से ईसा मसीह का जीवन पढ़कर सुनाया। ईसा के सूली पर चढ़ने के प्रकरण तक आते-आते माँ और चार्ली-दोनों रोने लगे। इस प्रसंग से उन्होंने स्नेह, करुणा और मानवता का पाठ पढ़ा। दूसरी घटना ने चार्ली के जीवन को बहुत प्रभावित किया। उन दिनों बालक चार्ली ऐसे घर में रहता था जिसके पास कसाईखाना था। वहाँ प्रतिदिन सैकड़ों जानवर वध के लिए लाए जाते थे। एक बार एक भेड़ किसी तरह भाग निकली। उसको पकड़ने वाले कई बार गिरे व फिसले तथा दर्शकों के ठहाके लगे।


जब वह भेड़ पकड़ी गई तो चार्ली उसके अंत को सोचकर अपनी माँ के पास रोते हुए गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि इस घटना से उन्हें करुणा व हास्य तत्वों के सामंजस्य का ज्ञान हुआ। भारतीय कला व सौंदर्यशास्त्र का संबंध रस से है, परंतु करुणा का हास्य में बदल जाना एक ऐसे रस-सिद्धांत की माँग करता है जो भारतीय परंपराओं में नहीं मिलता। हमारे यहाँ ‘हास्य’ सिर्फ़ दूसरों पर है तथा वह परसंताप से प्रेरित है। करुणा अच्छे मनुष्यों तथा कभी-कभी दुष्टों के लिए है। अपने ऊपर हँसने और दूसरों में भी वैसा माद्दा पैदा करने की शक्ति भारतीय विदूषक में कम नजर आती है।

भारत में चार्ली को व्यापक रूप से स्वीकार कर लिया गया है। हास्य कब करुणा में बदल जाएगा और करुणा कब हास्य में परिवर्तित हो जाएगी, इससे पारंपरिक या सैद्धांतिक रूप से अपरिचित भारतीय जनता ने उस ‘फ़िनोमेनन’ को इस तरह स्वीकार किया जैसे बत्तख पानी को। यहाँ किसी भी व्यक्ति को परिस्थितियों के अनुसार ‘चार्ली’ कह दिया जाता है। यहाँ हर व्यक्ति दूसरे को कभी-न-कभी विदूषक समझता है। मनुष्य स्वयं ईश्वर या नियति का विदूषक, क्लाउन, जोकर या साइड-किक है। महात्मा गाँधी से चार्ली चैप्लिन का खासा पुट था तथा गांधी व नेहरू-दोनों ने कभी चार्ली का सान्निध्य चाहा था। चार्ली के इसी अभारतीय सौंदर्यशास्त्र की व्यापक स्वीकृति देखकर राजकपूर ने ‘आवारा’ व ‘श्री 420 ‘फ़िल्में बनाई। इससे पहले फ़िल्मी नायकों पर हँसने या नायकों के स्वयं अपने पर हँसने की परंपरा नहीं थी।



राजकपूर के बाद दिलीप कुमार, देवानंद, शम्मी कपूर, अमिताभ बच्चन, श्री देवी आदि ने चैप्लिन जैसे किरदार निभाए। चार्ली की फ़िल्में भाषा का इस्तेमाल नहीं करतीं। उनमें मानवीय स्वरूप अधिक है और सार्वभौमिकता सर्वाधिक है। चार्ली सदैव चिरयुवा दिखते हैं तथा वे किसी भी संस्कृति को विदेशी नहीं लगते। चार्ली में सबको अपना स्वरूप दिखता है। इस प्रकार उनमें सब बनने की अद्भुत क्षमता है। भारत में होली के त्योहार को छोड़कर स्वयं अपने पर हँसने या स्वयं को जानते-बूझते हास्यास्पद बना डालने की परंपरा नहीं के बराबर है। नगरीय लोग तो अपने पर हँसने की सोच भी नहीं सकते। चार्ली स्वयं पर सबसे ज्यादा तब हँसता है जब वह स्वयं को गर्वोन्मत्त, आत्मविश्वास से युक्त, सफलता, सभ्यता, संस्कृति तथा समृद्ध की प्रतिमूर्ति, दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली व श्रेष्ठ दिखलाता है। उसका रोमांस पंक्चर हो जाता है। महानतम क्षणों में भी वह अपमानित होना जानता है। उसके पात्र लाचार दिखते हुए भी विजयी बन जाते हैं।

 पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न


पाठ के साथ

प्रश्न 1:

लेखक ने ऐसा क्यों कहा है कि अभी चैप्लिन पर करीब 50 वर्षों तक काफी कुछ कहा जाएगा?

उत्तर –

चैप्लिन एक महान कलाकार थे। उन पर जितना लिखा जाए कम है। उन्होंने अपने समाज और राष्ट्र के लिए बहुत कुछ किया। उन पर जितना अभी तक लिखा गया है, वह कम है। इसलिए लेखक ने कहा कि अभी उन पर 50 वर्षों तक काफ़ी कुछ लिखा जाएगा ताकि उनके जीवन के बारे में लोग अच्छी तरह से जान सकें।


प्रश्न 2:

” चैप्लिन ने न सि.र्फ. फिल्म-कला को लोकतांत्रिक बनाया बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोडा।” इस पंक्ति में लोकतांत्रिक बनाने का और वर्ण-व्यवस्था तोड़ने का क्या अभिप्राय है? क्या आप इससे सहमत हैं?

उत्तर –

में लोकतांत्रिक बनाने का और वर्ण-व्यवस्था तोड़ने का क्या अभिप्राय हैं? क्या आप इससे सहमत हैं? उत्तर ‘लोकतांत्रिक बनाने’ का अर्थ है-आम व्यक्ति के लिए उपयोगी बनाना। चालों से पहले फिल्में एक वर्ग-विशेष के लिए बनाई जाती थीं। इनका निर्माण सामंतों, बुद्धजीवियों, कलाकारों आदि की रुचियों के अनुरूप किया जाता था। चार्ली ने अपनी फिल्मों में आम आदमी को स्थान दिया, उनकी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। उसने हर व्यक्ति की कमजोरी को बताया।

‘वर्ण-व्यवस्था तोड़ने’ का अर्थ है-जाति-संबंधी व्यवस्था को तोड़ना। चार्ली ने फ़िल्मों में निम्न वर्ग को स्थान दिया। कुछ लोग किसी विचारधारा के समर्थन में फिल्में बनाते थे। चार्ली ने इस जकड़न को तोड़ा तथा सारे संसार के व्यक्तियों के लिए फिल्में बनाई। उन्होंने कला के एकाधिकार को समाप्त किया।


प्रश्न 3:

लेखक ने चार्ली का भारतीयकरण किसे कहा और क्यों? गाँधी और नेहरू ने भी उनका सन्निध्य क्यों चाहा?


अथवा


चार्ली चैप्लिन का भारतीयकरण किन-किन रूपों में पाया जाता है? पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।

उत्तर –

लेखक ने चार्ली का भारतीयकरण राजकपूर जी को कहा क्योंकि उस समय वही एकमात्र नायक थे जो चार्ली की नकल किया करते थे। अपनी कई फ़िल्मों में उन्होंने चार्ली जैसी ऐक्टिंग (अभिनय) की। आवारा, श्री 420 आदि फ़िल्मों के माध्यम से राजकपूर जी ने चार्ली का भारतीयकरण किया। महात्मा गांधी से चार्ली का बहुत लगाव था। इसलिए श्री जवाहरलाल नेहरू और गांधी दोनों ही चार्ली का सान्निध्य चाहते थे ताकि उनकी क्षमताओं, उनकी कार्यकुशलता से कुछ सीखा जाए।


प्रश्न 4:

लेखक ने कलाकृति और रस के संदर्भ में किसे श्रेयस्कर माना है और क्यों? क्या आप कुछ ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जहाँ कई रस साथ-साथ आए हों?

उत्तर –

लेखक ने कलाकृति और रस के संदर्भ में रस को श्रेयस्कर माना है। किसी कलाकृति में एक साथ कई रसों का मिश्रण हो तो वह समृद्ध व रुचिकर बनती है। जीवन में हर्ष व विषाद आते-जाते रहते हैं। करुण रस का हास्य में बदल जाना एक ऐसे रस की माँग करता है जो भारतीय परंपरा में नहीं मिलता। उदाहरणस्वरूप युवक-युवती लाइब्रेरी में बैठकर प्रेम वार्तालाप कर रहे हैं। उसी समय सुरक्षा अधिकारी उन्हें देखता है तो उनमें भय का संचार हो जाता है।



प्रश्न 5:

जीवन की जद्दोजहद ने चार्ली के व्यक्तित्व को कैसे संपन्न बनाया?


अथवा


उन सधर्षों का उल्लख कीजिए, जिनसे टकराते-टकराते चार्ली चेप्लिन के व्यक्तित्व में निखार आता चला गया।


अथवा


चार्ली चेप्लिन के जीवन-सघर्ष पर प्रकाश डालिए।

उत्तर –

चार्ली को जीवन बहुत संघर्षमय रहा है। उसने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किए है। हर संघर्ष और असफलता ने उसे अधिक ऊर्जावान बनाया है। वह कभी निराश नहीं हुआ। लोगों की सहायता करता रहा। कभी भी उसने संकटों की परवाह नहीं की। हर संकट को डटकर मुकाबला किया। वह अपनी माँ के पागलपन से संघर्ष करता रहा। सामंतशाही और पूँजीवादी समाज ने उसे ठुकरा दिया। गरीब चार्ली हर पल अपनी मंजिल के बारे में सोचता और उस तक पहुँचने का मार्ग खोजता । आखिरकार उसे अपनी मंजिल मिल ही गई। रोडपति से वह करोड़पति बन गया।


प्रश्न 6:

चार्ली चेप्लिन की फ़िल्मों में निहित त्रासदी/करुणा/हास्य का सामंजस्य भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्रर की परिधि में क्यों नहीं आता?

उत्तर –

भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र अनेक रसों को स्वीकृति देता है, परंतु चार्ली की फ़िल्मों में निहित त्रासदी/करुणा/हास्य का सामंजस्य को अलग मानता है। इसका कारण यह है कि यह रस सिद्धांत के अनुकूल नहीं है। यहाँ हास्य को करुणा में नहीं बदला जाता।’रामायण’ और’महाभारत में पाया जाने वाला हास्य दूसरों पर है, अपने पर नहीं। इनमें दर्शाई गई करुणा प्राय: सद्व्यक्तियों के लिए है, कभी-कभी वह दुष्टों के लिए भी है। संस्कृत नाटकों का विदूषक कुछ बदतमीजियाँ अवश्य करता है, परंतु वह भी दूसरों पर होती है।


प्रश्न 7:

चार्ली सबसे ज्यादा स्वयं पर कब हँसता है?


अथवा


चार्ली सबसे ज़्यादा स्वय पर कब और क्यों हसता है?

उत्तर –

चार्ली सबसे ज्यादा स्वयं पर तब हँसता है जब वह अपने को स्वाभिमानी, आत्मविश्वास से पूर्ण, सफलता, सभ्यता, संस्कृति की प्रतिमूर्ति मानता है। जब वह स्वयं को दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली और समृद्ध तथा श्रेष्ठ समझता है तब भी वह अपने पर हँसता है।


पाठ के आस-पास

प्रश्न 1:

आपके विचार से मूक और सवाकू फिल्मों में से किसमें ज्यादा परिश्रम करने की आवश्यकता है और क्यों?

उत्तर –

मेरे विचार में मूक फ़िल्मों में ज्यादा परिश्रम की जरूरत होती है। सवाक् फिल्मों में भाषा के माध्यम से कलाकार अपने भाव व्यक्त कर देता है। वह वाणी के आरोह-अवरोह से अपनी दशा बता सकता है, परंतु मूक फिल्मों में हर भाव शारीरिक चेष्टाओं द्वारा व्यक्त किया जाता है। इस कार्य में अत्यंत दक्षता की जरूरत होती है।

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