किशोरावस्था में वासना का ज्वर
प्रिय छात्रों!
सदा प्रसन्न रहो और सन्मार्ग पर बढ़ो।
किसी शायर ने लिखा था शमा कहे परवाने से परे चला जा मेरी तरह जल जाएगा पास नहीं आ।
सब को यही लगता है कि पतंगें को दीपक से प्रकाश से प्यार है, पर हम जरा गौर से सोचें तो अगर उसे प्रकाश से प्यार है तो सूरज से भी होना चाहिए न आखिर दिन में कहां चले जाते हैं पतंगें? अर्थात उन्हें प्रकाश से नहीं तम ,अज्ञान से अंधेरे की चाह है।वह तम जो उन्हें विनाश की ओर ले जाता है।पता है ये पतंगा की स्तिथि मनुष्य में कब दिखती है बच्चों?जब वह 12-13वर्ष की अवस्था पार करके किशोरावस्था में प्रवेश करता है।जो अवस्था अभी आप पर चल रही है।ये अवस्था तपस्या की अवस्था है पर कुछ ही तपस्वी टिक पाते हैं क्योंकि वे बल को विवेक पर हावी नहीं होने देते बस अपने लक्ष्य पर हर पल अर्जुन की तरह दृष्टि गढाए रहते हैं वरना तो अधिकांश के विवेक पर बल हावी होने लगता है जो धीरे-धीरे बालकों को पशुता की ओर ले जाता। विवेक हीन बल तो पशु के पास ही होता है। कुछ का विवेक ,संगति,और परवरिश उसे पशु नहीं बनने देती। बड़े ही पुण्यात्मा और भाग्यशाली होते हैं वे बालक जिन्हें ईश्वर ने उचित अनुचित का बोध ,अच्छे मित्र,और अच्छी परवरिश दी होती है,ये तीनों उस बालक को इस बीमारी से बचाते हैं।आप सोच रहे होंगे बीमारी? हां बीमारी।ऐसे समझें कि यदि कोई भयंकर लूं वाली गर्मी में भी कम्बल ओढ़ ले तो आप उस पर हंसते हैं कि पगला है क्या?या फिर उसे ठंड से ज्वर आ रहा होगा। जैसे कम्बल ओढ़ने का एक समय होता है ठीक उसी तरह हर अवस्था के लिए कुछ नियत नियम कर्म हैं। शिक्षा, गृहस्थ,जवानी ,बुढ़ापा सब का नियत समय है कभी ऐसा देखा है कि बुढ़ापा पहले आए और बाल्यकाल बाद में?सुनने में भी बड़ा अजीब लग रहा है न। फिर तपस्या की उम्र में ही युवावस्था और गृहस्थ जीवन जीने का घोर पाप क्यों कर बैठते हैं अधिकांश किशोर? किसी विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण ही किशोरावस्था का ज्वर है।जब हमें कोई लड़की/लड़का अच्छा लगने लगे अपने लक्ष्य से दृष्टि हटाकर बार-बार उसे देखने बातें करने छूने का मन हो तो समझ जाएं कि तम से प्यार करने वाला पतंगा आपके मन में घुस गया है जो मन में भ्रम पैदा कर रहा है कि आपको किसी से प्यार हो गया है। और ऐसा होता है शरीर में डिसबैलेंस हार्मोन के कारण,जैसे शरीर में बात पित्त कफ के बैलेंस बिगड़ जाने पर हम बीमार हो जाते हैं ,वैसे ही हमारा मन भी बीमार होता है। वास्तव में ये प्यार नहीं ,यह वह आकर्षक होता है जोपतंगे की तरह उसे विनाश की ओर ले जा रहा होता है।आपकों पता है हम स्वयं को विनाश से बचा सकते हैं।कैसे?श्री हनुमान जी को अपना गुरु बना लीजिए,राम का चरित्र पढ़िए और धारण कीजिए।केवल ज्ञान से भरी पारिवारिक, वीरतापूर्ण, देशभक्ति की,और आध्यात्मिक फिल्मों को देखिए। दोस्तों और परिवार के बीच इसी तरह की बातें करिए। वासना का ज्वर चढ़ाने वाले साथियों से दूरी बना लीजिए। मोबाइल से दूरी और ज्ञान विज्ञान की पत्रिकाओं से प्यार करना सीखिए, उन्हें पढ़िए दोस्तों को भी पढ़ाइए और चर्चा कीजिए। ध्यान रखिए कि हमारे पास बुद्धि और विवेक है, चरित्र है, इसलिए हम मनुष्य है। क्या गृहण करना है क्या नहीं,ये विवेक रखिए।जीवन जीने के लिए हम कुछ ऐसा भी पढ़ते हैं साइंस में कि मन में कुछ अजीब सा फील होगा,तो तब ये सोचिए कि डाक्टर जब किसी मरीज का आपरेशन कर रहा होता है तो अच्छे से हाथ साफ करके घर जाता है या फिर वहां के मल, मूत्र,खून,आदि गंदगी को साथ ले जाता है? नहीं न ।यह उसका काम है सेवा है।आप सब का भी यही काम है कि शरीर विज्ञान की जानकारी रखें पर दिमाग में गंदगी उठाकर न ले जाए। नैतिक बोध और अध्यात्म से उसकी नियमित सफाई करते रहें।जब कुत्ता रोटी चुराकर खाता है तो कितना डरता है दुम दबाकर खाता है और जब चुराकर नहीं खाता हम खिलाते हैं तो दुम हिलाता है।यानी उस पशु की दुम में भी विवेक है और हम तो मनुष्य हैं,जब मन में भय हो कि कोई देख न ले,तो वह कार्य नहीं करना।अपने विवेक का प्रयोग करना ही मनुष्य होने की निशानी है। अतः फ़ालतू की अकड़, आकर्षक से बच कर रहना सीख लीजिए।
बाक़ी तो बार बार याद दिलाने के लिए माता पिता गुरुओं के अनुशासन की छड़ है ही।
आपकी दीदी
सरला।
7/10/24
जी दादी आपकी इस पात्र में कही हर बात का मै अवश्य पालन करूंगा। बस इसी तरह आप मेरा और हम सबका मार्गदर्शन करती रहिए गा।
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