धोखा ही धोखा

 हा अपनों को धोखा परायों को धोखा,

हां खुद को धोखा ही मैं दे रहा था।

समझता था तो भी मैं मानता नहीं था।

ये पापों की नैया को मैं के रहा था।

हां भगवान बन कर मैं ठगता था सबको,

मैं दिन में था  कुछ, रात मैं कुछ और था,

मैं औरों को उपदेश देकर ठग रहा था

हां भगवान खुद बन मजे ले रहा था।

खुल गयी पोल आखिर,मिटा ढोंग सारा,

पड़ा जेल में खूब अब मैं रो रहा हूं।

ये चालाकियां सब धरी रह गयी हैं,

सना सारा जीवन ही छल से रहा था,

हां नरक द्वार मेरे लिए हंस रहा है।

वे यम दूत जाने मेरा क्या करेंगे?

भुगतने पड़ेंगे कुकर्मों के फल सब।

कुकर्मों का साथी चुना चे रहा था।

रचनाकार

प्रेमचंद शर्मा जिरौलिया





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