शांत ठहरे जल में देख रही थी बीता कल,
बना रही थी सांझी रंगोली में तुम्हारी ही मन मोहक छवि बल और छल।
तुम आए और पत्थर मार कर चले गये।
न रहा शांत जल,और न संस्मृत बीता कल।
ऐसा करने से मिलता क्या है तुम्हें,?
क्या स्थाई एक रस पीड़ा का भी नहीं है अधिकार?
प्रतिपल क्यों देते हो नयी पीड़ा का उपहार?
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