बड़े न होवै गुन बिना (बात 2017 की है)
रहीम की ये पंक्तियां बेसाख्ता याद आ गयीं,
जीवन का कितना अनुभव रहा होगा कवि को कि हर युग में सटीक बैठती है ये पंक्तियां, बड़े कहलाने वाले अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाले लोग इर्द गिर्द मिल ही जायेंगे आपको।
बड़े न हूजै गुणन बिनु,
बिरदु बढ़ाई पाय।
कहत धतूरौं सौं कनक ,
गहनों गढौ न जाय।
बात सात साल पहले की है स्वयं को विद्यालय और विद्यार्थियों के लिए होम कर देने का भाव भी किसी की ईर्ष्या का विषय हो सकता है ये नया अनुभव उसी वर्ष हुआ। वाकया था विद्यालय वार्षिक उत्सव का । भव्य प्रोग्राम था । सांस्कृतिक श्रंखला में पर्यावरण संरक्षण पर ईश्वर कृपा से एक महीने की नींद खोकर रात रात भर जागकर एक स्क्रिप्ट तैयार हुई,शरीर की अनदेखी करने पर बाद में तीन महीने का उपचार भी कराना पड़ा। खैर, सरस्वती कृपा से स्क्रिप्ट ऐसी बन पड़ी थी कि स्टूडियों रिकार्डिंग से लेकर राष्ट्रीय स्तर के अधिकारियों ने भूरि भूरि प्रशंसा की। मैं संकोच से गढ़ी जा रही थी, क्यों कि रिंग मास्टर बेशक मैं थी परन्तु सर्कस में पूरी विद्यालय टीम जुटी थी। मुझे अंदाजा नहीं था कि लोगों को इतनी पसंद आयेगी।इस लिए भावुक भी हो उठी थी और कोटि कोटि साधुवाद दे रही थी अपनी पूरी टीम को।जैसै प्रोग्राम विद्यालय का न होकर मेरे घर का हो।लिखने से मंचन तक डेढ़ महीने की मेहनत जो थी। परन्तु खुशी के रंग में भंग पड़ गया।अभी हफ्ते भर तक प्रशंसा सुन सुन हीमोग्लोबिन बढा ही था कि विद्यालय के तत्कालीन अध्यक्ष जी ने उत्कृष्ट कथानक लेखन एवं संयोजन के पुरुस्कार के रूप में 5100रूपये का चैक और प्रमाण पत्र भरी सभा में मेरे हाथ में थमा दिया। शिष्टाचार के नाते लेने तो पहुंची पर स्तब्ध थी ,हाथ कांप रहे थे। मीटिंग खत्म होते ही मैं बदहवास हालत में प्रबंधक कक्ष पहुंची और अनुनय विनय पूर्वक अध्यक्ष जी को कहा कि ये ठीक नहीं, काम पूरी टीम ने किया है ।आप खुश हैं तो सब का वेतन बढ़ा दीजिए। परंतु प्रधानाचार्य जी ने पिता तुल्य आदेश दिया और कहा कि चुपचाप अपने पास रखो ,बाकी सब का भी कुछ करते हैं। आफिस से बाहर निकली ही थी कि आक्रोशित टीम मुझ पर हावी थी।एक मुहतरमा जिनका प्रोग्राम से कोई लेना देना नहीं था वे सूत्राधार की कमान संभाले थी, आग में घी डालने की। मुझे भी लग रहा था कि बात तो सही है पर मैं उन्हें ये समझाने में असमर्थ थी कि मैं तुम्हारे साथ हूं। सो मैं मौन हो गयी।भारी मन से वह चैक कक्षा की सैल्फ में ही रखा और घर आ गयी ।रात भर सोचती रही कि चैक भुनाकर क्या ऐसा खरीदूं कि सब को दे सकूं। अगले दिन कक्षा में पहुंचीं तो बालकों से पेंडिंग पड़ीं फीस पर चर्चा की परीक्षा निकट थी। कक्षा में एक छात्र ऐसा था जो बहुत ही मेधावी सदाचारी पर आर्थिक समस्या से लाचार ,और मेरा परम प्रिय था । परेशान था मां को कैंसर था, पर खुद्दार भी था कभी फीस माफी हेतु एप्लिकेशन नहीं दी जबकि ऐसे छात्रों का बजट था विद्यालय में। मेरी कक्षा के विद्यार्थियों में ये भाव और संस्कार था उसकी इच्छा न होने पर भी अपनी जेब खर्च से चंदा कर उसे विद्यालय टूर वाटर पार्क में ले गये थे। मुझे बाद में पता चला ,जब उस बालक ने ही बताया।
इस बार उस छात्र ने कहा कि मैं एग्जाम नहीं दे पाऊंगा, उसकी ये बात सुनकर आघात सा लगा। पर मैंने कहा तुम परीक्षा दोगे। कुछ नहीं चुकाना तुम्हें सब हो जायेगा।ऐसे ही थोड़े मैं तुम्हें प्यारे लाल बोलती हूं। ये अवसर मैं भुनाना चाहती थी, चैक अलमारी से निकाल कर दिखाया और कहा देख भगवान ने इंतजाम कर दिया । उस चैक को इसके नाम का मान अपने चैक में समायोजित मानकर 10000का चैक आफिस में जमा किया।
और अपनी आक्रोशित टीम के कुछ सदस्यों को ये सूचना भी दी। उन्होंने विश्वास तो न किया होगा ऐसे भाव होगें तो शायद किया भी होगा,खैर दो चार महीने में सब का मूड ठीक हुआ और व्यवहार सामान्य। परंतु गांव की एक कहावत है -बोझ मरे बैल और बोझ लगे कीड़े मकोड़े को (लदै बर्द कुसकुसाये कलीला) । उन प्रतिष्ठित ईर्ष्यालु मोहतरमा जी को चैन न था। उनके सीने में जहरीले हजारों सांप लोट रहे थे। अब उन्हें अवसर की तलाश थी। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके व्यवहार और चेहरे से ईर्ष्या साफ दिखती है ,उनसे सावधान हो सकते हैं परन्तु सबसे ख़तरनाक वे होते हैं जो भले बनने का ढोंग रचाते हैं चहरे पर भाव नहीं झलकने देते ,कुछ महीनों बाद सूर सदन में सम्मिलित वार्षिक उत्सव प्रस्तावित मीटिंग थी ।मीटिंग में पदाधिकारियों ने विशेष रूप से मुझे बुलाया था। पिछले प्रोग्राम की अभी भी खुमारी थी ,मेरी छीछालेदर की उन्हें कहां भनक थी। विद्यालय पूर्व प्रधानाचार्य भी मीटिंग में जा रहे थे तो ड्राइवर और उनके साथ हम भी पहुंच गये यथा स्थान।लौटने पर मुहतरमा जी ने कुटिल मुस्कुरा कर कहा -भाई अब तो तुम्हारे ठाठ है, मीटिंग में प्रधानाचार्य की गाड़ी में बैठ कर, जलवे हैं तुम्हारे तो। ये शब्द मुझे अटपटे तो लगे पर लंबी स्वास भर मन में ये सोच कर कि "मुंडे मुंडे मतिरभिन्ना " कह आगे बढ़ गयी। परंतु सोच में तब पड़ गयी जब प्रवेश पत्र लेने आये उस प्रिय छात्र ने मेरे पास आकर आक्रोशित और भावुक होकर कहा कि मैम मैं 11नम्बर कमरे में गया था । मैंने कहा -हां मैं अभी मीटिंग से लौटी हूं , ये ले प्रवेश पत्र, ठीक से तैयारी करना। वह फिर बोला मैम ऐसी भी टीचर हैं यहां, जो टीचर कहने लायक भी नहीं, गिरी सोच वाले। मैंने डांटकर कहां क्या बक रहा है,क्या हुआ? वहां 11नम्बर कमरे में उल्टी सीधी बातें हो रहीं थी। मैंने पूछा क्या? यही कि कुछ बात तो है कलूटी में,अब समझ में आया स्क्रिप्ट पर चैक मिलने का कारण। मैंने कहा तो क्या हुआ?जब मैं तुम जैसी थी न तो तीन बार स्टेट में टाप किया था अदर टीम के लोग यही पूछते थे -"अलीगढ़ की कल्लो आई है क्या?भैया पक्का फिर से वही बाजी मारेगी।"" कल्लो नाम से ही सही कुछ तो पहचान है अपन की।और फिर मैं काली तो हूं इसमें बुरा क्या है।-नहीं , वे आपस में मजाक कर रहे होंगे। नहीं मैम-" डबल मीनिंग "
उसका ज़बाब था -मैम आपने ही पढ़ाया था न पिछली कक्षा में -बडे न हूजै गुणन बिनु" मैंने कहा -बस बस दुनिया है ये, तू क्या सोचता है मेरे विषय में बता ? उसने कहा- सरल हृदय सरला मां। आंखों में नमी तैर गयी, छुपाते हुए मैंने कहा- ऊपर जा, ये चाबी लेकर ,अलमारी से मेरी डायरी लेकर आ। ----- वह विद्यार्थी अब 12 पास करके डी एल एड कर रहा है।
उस दिन डायरी में लिखकर ही मेरा मन शांत हुआ "कि सही कहते थे हरिशंकर परसाई जी -ईर्ष्या की छोटी बहन निंदा होती है।"
जो हुआ अच्छा हुआ लोगों की नीयत और छोटी बुद्धि की पहचान ऐसे ही होती है। यदि कोई नेतृत्व न कर पाये, सकारात्मक न सोच पाये, अपनी विकृत मानसिकता ठीक न कर सके तो इसमें मेरा क्या दोष?
तेरे जाने कछु करै ,भलों बुरौ संसार।
नारायन तू बैठ कर, अपनों भुवन बुहार।
उसी पल मैंने प्रधानाचार्य से जाकर स्पष्ट तौर पर पूरी बात बता कर ये कहा कि इस बार मैं स्क्रिप्ट नहीं लिखूंगी और न लीड रौल में रहूंगी ।पिछली बार तनाव लिया, तीन -तीन भाषाओं के और भी विद्वान विदुषियों को भी अवसर मिलना चाहिए। तुरंत ही कम्प्यूटर लैब में मीटिंग हुई और विषय भी दिया गया लेखन को ,तीन साल बाद ही प्रधानाचार्य जी तो रिटायर हो गये और बीच में कोरोना भी आ गया पर एक भी स्क्रिप्ट न आई ।
काठ की हंडिया गयी तो क्या ---- जाति पता चल गयी।
और आज उस बालक के नाम का कटा चैक देख उसका तेजस्वी चेहरा याद आ गया।
नोट-यदि वह बालक इस लेख को पढ़ रहा है तो प्रतिक्रिया न दे। जानबूझकर मैंने उसका नाम नहीं लिखा। गुरु शिष्य मर्यादा का भी ध्यान रहे। डायरी लिखने का मेरा शगल है अच्छे बुरे हर संस्मरण से आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है मुझे। कठिनाइयों से ही अधिक प्रेरित होती रही हूं,
सब लिख देती हूं। क्योंकि अब मैं डायरी के सभी लेख ब्लागर पर प्रकाशित कर सुरक्षित रखना चाहती हूं ।आज अपडेट किया इसलिए यहां भी पोस्ट कर रही हूं।
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