किसी के भी पैंतीस टुकड़े हों,अपन का क्या जाता है

 किसी के भी पैंतीस टुकड़े हों,या तीन सौ, 

अपन का क्या जाता है?

अपन का तो भैया , भाईचारे का नाता है।

चंद टुकड़ों के लिए तो सबका जमीर भी बिक जाता है,

राजा हरिश्चंद्र तो काशी में ठोकर ही खाता है,

श्रद्धा के टुकड़े हों या भक्ति के ,

फायदे के लिए तो अब्दुल ही भाता है।

कायदे की सनक छोड़, फायदे का चश्मा लगाकर तो देखो,

अब्दुल के सुर में बांग मिलाकर तो देखो,

पाप और पुण्य का भेद सब मिट जाता है,

देश धर्म  का ओढ़ा चोला ,खुद ही उतर जाता है।

खैर दूरदृष्टाओं को तो अब्दुल में खोट ही नज़र आता है,

अक्खड़ और फक्कड़ों को व्यापार कहां आता है।

दूर दृष्टां को तो निकट दृष्टि दोष है,

और कहते फिरते हैं कि मेरे अब्दुल में खोट है,

कितने फर्राटे से वह कैंची चलाता है,

शूरवीर है वह धड़ल्ले से मंदिर में चला आता है,

भविष्य की किसे फिकर, हमें तो बस वर्तमान ही नज़र आता है।




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