आदि न अंत
'अरे कन्हाई! कहाँसे आ गये तुम ?'
'क्यों सखी! मेरा आना अच्छा नहीं लगा तुझे ?"
'इस बातका क्या उत्तर दूँ ?"
'क्या बात है, बोली नहीं तू! चला जाऊँ ?'
'श्याम......' – मेरे मुखसे निकला, नयन भर आये और कंठ रुद्ध हो गया, भला इतना भोला भी कोई होता है ?
'मेरा साथ तुझे अच्छा नहीं लगता ?' मेरे समीप बैठते हुए वे बोले'—
मुझसे कुछ अपराध बन गया ?"
मैंने 'नहीं' में सिर हिला दिया ।
अरी इतना बड़ा-सा सिर हिलायेगी पर दो अंगुलकी जीभ नहीं हिला सकती ?'
'क्या कहूँ ?'
'क्या कहनेको कुछ भी नहीं रह गया है ?"
'श्याम...... ।'
'श्याम-ही- श्याम कहेगी। मैं श्याम हूँ सखी ! पर तू तो उजरी है, फिर क्या चिंता है ! यहाँ क्यों बैठी है ? '
मैं बोली-'मन खो गया है'
हँस पड़े कान्ह – ‘तो इस कुंजमें ढूँढ रही है उसे ? चल मैं ढूंढ़वा दूँ । उस दिन संदेश पहुँचा दिया उसका आभारी हूँ ।
‘आभारको मैं क्या करूँगी! न ओढ़नेके काम आये, न बिछानेके ।'
‘तो तेरा क्या प्रिय करूँ इला ?'
‘मेरा प्रिय ! क्या कहूँ, कुछ कहते नहीं बनता ।' – नयन झर-झर बरस उठे ।
'यह क्या सखी! क्या दुःख है तुझे ? ' – कान्ह घबरा कर बोल उठे ।
'कहनेसे क्या होगा ? मेरा दुःख किसी प्रकार नहीं मिट सकता।'
'मुझसे कह इला! कैसा ही दुःख हो, मैं मिटा दूँगा उसे ।' – मेरा मुख - अंजलीमें भर व्याकुल स्वरमें बोल उठे वे ।
‘मन निरन्तर तुम्हें देखते रहना चाहता है ! कोई ऐसी औषध दे दो कि तुम्हें भूल जाऊँ।' – हिलकियोंके मध्य अटक-अटक कर मैंने बात पूरी की । -
'इला...... ।'
‘तुम्हें छोड़ मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, मैं क्या करूँ, किससे कहूँ, कहाँ जाऊँ?'–वाणी रुद्ध हो गयी, मैंने हाथोंसे मुँह छिपा लिया ।
'किसी प्रकार तुम्हें भूल जाऊँ, किंतु यह संभव नहीं लगता! यह नासपिटा मन मानेगा नहीं। अच्छा कान्ह! कोई ऐसा उपाय है जिससे लगे कि तुम सदा मेरे समीप हो ।'
'तुझे ऐसा नहीं लगता सखी ?" — वे हँस पड़े ।
'लगता तो है, पर ऐसा लगता है समीप होने पर भी दूर हो । '
' और कुछ चाहिये ?'
' और है क्या तुम्हारे पास ?'
'
अच्छा सखी! मुझे भूल कर तू सुख पायेगी ?'
'कैसे कहूँ? पर स्मरणकी सीमा नहीं, वह जैसे विरमित होना नहीं जानता।'
'ठीक है, मैं कुछ उपाय करूँगा।'
'किसका ?'
'जिससे तू मुझे भूल सके ।'
'नहीं! नहीं!! तुम्हारा स्मरण ही तो हमारा जीवन है, तुम्हें भूलकर और क्या करूँगी ?'–प्राणोंकी व्याकुलता स्वरमें फूट पड़ी ।
'उठ इला! सखा मुझे ढूँढ रहे होंगे, चल तेरी पड़िया ढूँढ दूँ !' - मेरा हाथ थाम वे उठ खड़े हुए।
जय श्री राधे....
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