गीत संगीत की अनंत सीमा शक्ति


 अक्सर हम कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है ।

साहित्य समाज का दर्पण है तो इस दर्पण को साफ सुथरा रखने की जिम्मेदारी और कर्तव्य गीत और संगीत पर है ।हालांकि गीत और संगीत भी साहित्य का ही अंग है। गीत संगीत की शक्ति की सीमाएं और दायरा अनंत है।  इतिहास के गर्त से  अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब गीत संगीत ने ही समाज को दिशा प्रदान की और समाज को पतन के गर्त में भी पहुंचाया। चाहे वो  रामायण महाभारत काल हो,विक्रमादित्य युग रहा हो या मुगल काल गीत संगीत ।यदि देशभक्ति का संगीत सीमा पर स्थित प्रहरियों में मातृ भूमि के प्रति सर्वस्व न्योछावर करने की भावना फूंक सकता है ,युद्ध में स्थित योद्धाओं के खून में उफान भर सकता है ,तो सामाजिक जीवन में चेतना भरने का काम क्यों नहीं कर सकता ।चंदबरदाई जैसा कवि  अंधे पृथ्वीराज से लक्ष्य भेद करा सकता है, तुलसीदास जैसा महामना संगीतज्ञ धर्माचार्य विलासिता से पूर्ण वातावरण में भी रामचरित के गीत संगीत से लोगों का चरित्र निर्माण कर सकता है, मीरा जैसी करुणामूर्ति, भक्ति करुणा संगीत साधना का मंत्र यदि समाज में फूंक सकती हैं, कबीर जैसा  साधन विहीन निरक्षर  फक्कड़ फकीर गायक  समाज में नीति का मंत्र फूंक सकता है   ।सिद्ध संगीतज्ञ दीपक राग गा कर दीप जला सकते हैं। नट भैरव गाकर कमल खिला सकते हैं। तो आज के साधन सम्पन्न संगीतकार देशोद्धार के लिए  क्या नहीं कर सकते ?बस आवश्यकता है सही सोच और समझ की। संगीत केवल कुछ गिने-चुने लोगों की ही पूंजी नहीं ,विरासत है यह समाज की ।धरोहर है यह देश की ,और तूलिका है यह चरित्र की । जितना परम आनंद एक शास्त्रीय संगीतज्ञ को गायन के समय आता है ,उतना ही आनंद खेत में गाते गाते कुदाली चलाते किसान को भी आता है। गाता और गुनगुनाता काम करता हुआ वह अपनी थकान मिटाता है ।सड़कों पर काम करने वाला मजदूर भी संगीत से वही आनंद पाता है, सुर में झूमकर वजन उठाता है। वास्तव में संगीत जीवन है ,जीने की कला है,परंतु इस कला में कुछ कलाकारों ने अपनी दबी वासना स्वार्थपरता की तूलिका से विकृत रंग भर के ऐसे वीभत्स चित्र का निर्माण किया है  कि अब सुर की जगह सुरा में डूबने लगे हैं नवयुवक।

 वास्तव में दोष भटके हुए युवकों का नहीं ,बल्कि इसके जिम्मेदार हैं उन्हें भटकाने वाले यह विकृत गीत संगीतकार । बाल कोमल मन पर दो बोतल पैक की, चिकनी चमेली, तू मेरे साथ एक रात गुजार ,चिपका ले सैया फेविकोल से,जैसे चित्र जो उकेरे जा रहे हैं। जिन्हें बचपन में उसकी समझ नहीं, परंतु समझ आने से पहले ही उन शब्दों  का प्रभाव होता है उसके चरित्र पर। उस भोडे संगीत के आदी हो चुके होते हैं वे,और उन्हें सही और गलत में फर्क ही नहीं होता, बिल्कुल ऐसे जैसे शाकाहारी के लिए जीव हत्या, मांस खाना पाप है ,और मांसाहारी के लिए मांस खाना  एक सामान्य बात  है ।

तो सोचनीय विषय यह है- आखिर इस पतन का जिम्मेदार कौन ?

क्या अपने आप को संगीत पुरोधा साहित्य पुरोधा मानने वालों की यह जिम्मेदारी नहीं बन जाती कि वह देश और समाज को स्वस्थ संगीत गीत प्रदान करें ?जिन्हें गा गा कर सुन सुन कर देश उत्तरोत्तर समृद्धि करें? एक आदर्श प्रस्तुत करें ?जहां दुराचारी न हो 'बलात्कारी न हो, शराबी ना हो, जुआरी ना हो, क्या इन कदाचार की भर्त्सना करने वाले गीत संतीत को फिल्मों में स्थान नहीं मिलना चाहिए?क्या फिल्मों में आइटम सौंग आवश्यक हैं?क्या देश‌और धर्म के प्रति फिल्मों का कोई कर्तव्य नहीं? क्या उनका बहिष्कार नहीं होना चाहिए जिनका कर्तव्य बस कूड़ा परोसकर धन कमाना है? केवल वीर उत्साही चरित्रवान नागरिक गीतसंगीताचार्य ही देश का निर्माण कर सकते हैं। ऐसे ही नागरिकों पर निर्भर है देश की मजबूत नींव।  देश की रीढ मजबूत है तो विकास का का शरीर मजबूत है। मजबूती प्रदान करने की जिम्मेदारी केवल और केवल गीत और संगीत  शिक्षा पर है।ये स्वस्थ गीत संगीत और शिक्षा है प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी।

 जरूरत है ऐसे गीत-संगीत की जो छात्र से कह सकें -"लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती । देश हमें देता है सब कुछ हम भी तो कुछ देना सीखें।"

जो सैनिक से कह सके- "सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं ! मेरा कर्मा तू मेरा धर्मा तू।"

जो किसान से कह सके- 

"स्वर्ग से सुंदर लागे  भैया अपना गांव गिराव रे ।"

जो मजदूर से कह सके -"इन हाथों में दम है ,श्रम से स्वर्ग बना देंगे ।साथी हाथ बढाना मिलकर राह बना देंगे।"

जो शिक्षक कह सके -"दीपक है तू ज्ञानालय  का जलता रह,और चलता रह।"

 जो माताओं से कह सके -

"तेरे घुटनों में वेदालय ,तू राम बना और सीता ।

अपने आंचल की छाया में, शिव्वा को पढा तू गीता।

सरला बस चाहे स्वर्णिम युग, जहां कोई न  हो सभीता ।"

ये सब बातें सब के खून में बहें, हवा में ये सुरभित सुर गूंजें।

जहां कर्तव्य अधिकार से पहले हो।

आज सुर में डूबने की बजाए  सुरा और सुन्दरी में डूबने वाले संगीतकदाचार्यो की आवश्यकता नहीं ।  वेदपाठी   सर्वज्ञ कदाचारी से केवल गायत्री मंत्र जानने वाला सदाचारी भला। वश्यकता है -संगीत सुरसुरी में स्नान कराके देश का भवन बनाने वाले भागीरथों की। जब जागो तभी सबेरा। मेरे मन में जो आया वह कह डाला ,आपके मन की आप भी कहिए। 

सरला भारद्वाज

29/1/22

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