हदें भूल जाता हूं।

 


गांव का आदमी हूं साहिब,

 हदें भूल जाता  हूं।

हृदय की गीली मिट्टी में, 

भावनाएं उगाता हूं।

हम दो हमारे दो, 

समझ कहां पाता हूं।

वसुधैव कुटुंबकम्,

बस यही दुहराता हूं।

गांव का आदमी हूं साहिब,

हदें भूल जाता हूं।


संक्रमण की बात से,

तनिक न घबराता हूं।

प्रियजन की हालत जानकर

मिलने  चला आता हूं।

दुतकार औ फटकार को,

याद कहां रख पाता हूं?

राग द्वेष भूलकर,

गीत प्रेम के गाता हूं

तंग घरों की सभ्यता ,

समझ नहीं पाता हूं।

गांव का आदमी हूं साहिब 

हदें भूल जाता हूं।


सोच मेरी आसमां सी,

जिसकी कोई हद नहीं,

हृदय मेरा भावसिंधू

,उसकी कोई हद नहीं,

ऊसर में खपकर भी मैं,

आशा  बीज बुबाता हूं।

गांव का आदमी हूं साहिब,

हदें भूल जाता हूं।





सरला भारद्वाज 

दयालबाग आगरा


३१/५/२१


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