भाग का भाग
दोष उसका भी नहीं है ,दोष मेरा भी नहीं,
वक्त का ही दोष था,भाग्य का ही दोष है।
दो अलग-अलग वृत्ति और संस्कार मिल गये थे राह में।
चाहा तो उसने भी था,चाहते तो हम भी हैं,
फासले हैं सोच के।
एक अनहद नाद में मन मस्त था,और वह विद्ध्वंश में ही व्यस्त था।
यत्न से वीणा बनी थी,जिसके टूटे तार हैं।
बेसुरे सुर हो गये सब, बिखरे बिखरे राग हैं।
चाह मेरी सुकृति थी ,उसने समझी विकृति।
हम हैं प्रेमी साधना के, उसने समझी वासना।
साधना से आ मिटाकर , साधना साधन बनाई।
इतना भी होता अगर तो कुछ नहीं,
नेह के कंकरीले पथ में,छावं की तो आस थी,
जानकर और समझकर भी, मृगमरीची प्यास थी।
था उसी में सुख हमें संतोष था,अपने छलिया के लिए मैं खेल की तो वस्तु थी।
पर अरे !इस भ्रम ने मुझे ,घायल किया,
खेल में भी खेल इक चलता रहा।
वक्त अपने हाथ ही मलता रहा।
अब हृदय का शूल हूं मैं।
सोची-समझी भूल हूं मैं,
भूल हूं तो क्या हुआ?
उन चरण की धूल हूं मैं।
दोष किसको दूं भला निज भाग का,
मेरे हिस्से का मिला ही भाग है।
हो गया निस्तेज तन कब का भला,
किंतु फिर भी मन जली एक आग है ।।
प्रेम के पथ में मिला जो पथिक को,आज मुझको भी मिला वो दाग है।
अंत होता है नहीं जिस गीत का, गुनगुनाता मन मेरा वो राग है।
सरला भारद्वाज (पथिक)
२६ -७- २०
Comments
Post a Comment