पटल पर तुम्हारा चित्र

  इस हृदय के पटल पर,एक ही प्रतिबिंब था, प्रियतम तुम्हारा।

मन मोहक मुस्कुराता ,कल्पित निश्छल चेहरा तुम्हारा।

स्पष्टता थी उसमें,न भ्रम ना कोई छलावा।

पर अरे !छलिया ,ये तूने क्या किया?

इस घट को भी ,दधि घट, तूने समझ लिया।

कर दिया न, छल के पत्थर से आघात।

और फिर चाहे, ना नयना बनैं प्रपात।

आशाओं का ,मक्खन बिखर गया।

विश्वास की माटी ,का घट दरक गया।

अनगिनत छवियां ,बनी उसमें तुम्हारी।

और  अब चकरा रही, बुद्धी हमारी।

कौन सा प्रतिबिंब, असली है तुम्हारा?

जानते हम ,गिरगिटी मन है तुम्हारा।

आस अब ना है तुम्हारी, और ना विश्वास है।

ये तो बस ,गहरे कुएं का ,मौनमय उच्छ्वास है।

चाहत है बस ,चाह नहीं, मुझको तुम्हारी।

जीतकर भी हार है ,बस ये तुम्हारी।

 सरला भारद्वाज

१० -१ -२१

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