कितना अरसा गुजर गया
१*नवकिसलय से अधर तुम्हारे,स्वर लहरी पर थिरके थे।
कुंम्हलित मन के फूल हमारे,पा फुहार ज्यों महके थे।
छेड़ी तान सुरों की जब, तब,नासापुट वह फूले थे ,
याद हमें है, ठीक तरह ,तब मस्ती में हम झूले थे ।
उसअनुपम छवि के दर्शन को पागल मन फिर तरस गया।
देखे बिना तुम्हें मनमोहन, कितना अरसा गुजर गया।
२*घुंघराली वो लटें तुम्हारी, मुख पर जब लहराती थी,
नील गगन में ज्यों शशि पर, घनघोर घटा घहराती थी।
तब तुम से घनश्याम और मेरा मन था बस हरी धरा।
अब है यह घनघोर घटा, पर हृदय हमारा तृषित धरा ।
बोलो तो तुम कब बरसोगे, सावन आकर फिर बरस गया।
देखे बिना तुम्हें मनमोहन कितना अरसा गुजर गया।
(सरला भारद्वाज *1-2-18)
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