डायरी के पन्ने
डायरी के पन्ने पलटते ही,
अविस्मृत अंक पर नजर पड़ते ही
पढ़ तुम्हारी कूट भाषा ,
मन में जग जाती थी आशा ।
अक्षरों को जोड़कर मन इतराता था ,
बिना पंख के उड़ता था इठलाया था।
अब न जाने इस नजर को क्या हुआ ?
क्यों छाया रहे हर तरफ धुंधला धुआं?
डायरी के पन्ने पलटते ही ,
बिखरे वर्णों को देखकर,
बीती बातों को सोच कर ,
क्यों फैल जाती हैं पुतलियां?
ना डायरी बदली ना पन्ने ना मैं,
और ना मेरा मन ,
फिर भी अर्थ कैसे बदल गए ,इन शब्दों के?
बदल कैसे गया हमारा नजरिया ?
जब कि तुम अब भी मेरे हो सांवरिया।
कृति -सरला भारद्वाज
29-12-20
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