तोलकर बोले
सरला भारद्वाज
19/6/2024
5:10 PM
*शब्दों का मनो विज्ञान*
शब्द ब्रह्म है, शब्द शक्ति है। शब्दों का एक अपना एक गणित है। शब्दों का अपना एक विज्ञान है। जहां दो और दो चार होते हैं ,तो नौ दो ग्यारह भी हो जाते हैं ।
जहां थोड़ी सी लापरवाही पर जीवन का सारा भौतिक और रसायन गड़बड़ा जाता है ।शब्द मनोविज्ञान का वह दर्पण है जिसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं आचरण का प्रतिबिंब दिखाई देता है। अतः जब भी बोले सोच समझ कर बोले ।मन के तराजू में तोलकर बोले। स्वयं को अत्यधिक योग्य सभ्य आधुनिक, आकर्षक दिखाने के चक्कर में कुछ गरिमामय व्यवसाय पर आसीन ,उम्रदराज लोग शब्दों का ऐसा मूर्खतापूर्ण प्रयोग करते देखे गए हैं कि उनकी विकृतियों और अवगुणों से पर्दा हट जाता है। उदाहरण के लिए आज के समय में स्वयं को आधुनिक मानने वाले कुछ लोगों को मैंने कहते सुना है- "*मेरे ऊपर तो न जाने कितने लड़के / लड़कियां मरते थे* *फिदा होती थे *मैंने तो न जाने कितनों को फंसाया है मूर्ख बनाया है।वे इन वाक्यों का प्रयोग इतने स्वाभिमान से करते हैं, जैसे -पद्मविभूषण सम्मान का कार्य किया है। मेरे अनुमान में वास्तव में वह कहना तो ये चाहते हैं कि मैं बहुत सुंदर हूं ,या गुनी हूं !वैसे अपने गुणों का बखान खोखले लोग करते हैं।थोथा चना बाजे घना यूं ही प्रसिद्ध नहीं हुआ है।परंतु यदि उनके यदि शब्दों के प्रयोग और अर्थ पर ध्यान दिया जाए तो उन्होंने कहा- मैं बहुत दुश्चरित्र मनचला या मनचली छपरी टाइप का इंसान हूं! क्योंकि अर्थ तो यही कहता है कि जिस स्त्री या पुरुष पर न जाने कितने मरते हो, आहें भरते हैं ,और यह सुनने में उस इंसान को खुशी मिलती है तो वह दुश्चरित्र ही होगा, भाव तो यही बनता है। मर्यादित पुरुष स्त्री तो सूर्पनखा के अमर्यादित वाक्यों पर असहज हो उठते हैं, श्री राम की तरह।फिर लंका विनाश सुनिश्चित हो जाता है। वास्तव में इस वाक्य को इस तरह कहा जाना चाहिए था -*कि अपने छात्र जीवन में हमने बड़े-बड़े दिग्गजों या उद्भट विद्वानों का आशीर्वाद पाया है ,शाबाशियां पाई है*। *लोग मेरे अमुक गुण के कारण मुझे पसंद करते थे या करते हैं*। *शब्दों से अनजान या आचरण की परिभाषा से अनभिज्ञ इन गरीबों को देखकर मुझे आश्चर्य तो तब होता है जब यह सामने बैठे व्यक्तियों की*मुस्कुराहट का अर्थ ये खुशी या सहमति समझ बैठते है*जबकि यह मुस्कुराहट व्यंग पूर्ण ,नजरों से गिराने वाली है ।हेय दृष्टि से देखी जाने वाली या दया भाव की हो सकती है ।उसकी बातों को सुनकर मन में व्यक्ति कह रहा होता है- *समझ गए जी हम तुम कैसे रहे हो*!!* *छि घर परिवार में बिठाने लायक भी नहीं* !!भगवान तुम्हें सद्बुद्धि दे। एक शब्द का चलन और बढ़ा है- *बहन जी टाइप*। माता-पिता की आज्ञाकारी सीधी सरल सन्मार्ग पर चलने वाली लड़की होना जैसे पाप है। लोगों को चुटकियां लेते हुए देखा गया है- *तुम तो बहन जी टाइप हो* कुछ लड़कियां सम्मान सूचक बहन जी शब्द से चिढ़ने लगीं हैं। पर सच कहूं इस शब्द को सुनने में मुझे तो बड़ा आनंद आता है। क्योंकि मेरे संस्कारों में सभी हमउम्र पुरुष, भाई के समान है। होता होगा आधुनिकता की पट्टी बांधने वाली मार्गं से भटकी अंधी लड़कियों के लिए यह शब्द व्यंग या गाली जैसा। मेरे लिए तो सम्मान सूचक लगता है। *जब कोई मुझे कहता है बहन जी"*तो थोड़ी सुरक्षा और अपनत्व भाव से भर जाती हूं।*
एक वाक्य का प्रयोग और अक्कसर सुना है। वह फलाना व्यक्ति बड़ा ही रिच है! मैं उससे दोस्ती करना पसंद करता हूं/ या करती हूं। मेरे बच्चों की दोस्ती रिच लोगों के बच्चों से है।भले ही वह गुणों से रिच न हों।लालच और प्रतिष्ठा के पुजारी जब यह वाक्य बोल रहे होते हैं तो उनकी आंखों और मुख की भाव भंगिमा को ध्यान से देखते हुए मुझे जलेबी की दुकान के पास खड़े हुए लार टपकाते हुए कुत्ते की स्मृति आ जाती है ।क्योंकि हलवाई उस कुत्ते को मानव धर्म के कारण जलेबी तो डाल सकता है, बार-बार दुम हिलवाने का आनंद तो ले सकता है, पर उसे विश्वास पात्र मित्र हरगिज नहीं मान सकता। हां अपनी आयवृद्धि के लिए उस जीव पर दया करके या शनि की साढ़ेसाती कम करने के लिए उपाय समझकर उसे टुकड़े जरुर डाल देता है। अब इस रिच शब्द को पकड़ा जाए, तो यह शब्द रिच नहीं ऋच /ऋचा होना चाहिए। अर्थात समझदार गुणवान बुद्धिमान मनुष्यों को सर्वथा ऋषि मुनियों की ऋचाएं आकर्षित करती है ।ऋचाएं जिन्हें पढ़ने से जीवन संवरता है।आसान होता है। मार्ग उन्नत होता है ।यह इहलोक से परलोक तक की यात्रा सहज और सफल बनाती हैं।
बहुत अच्छा लिखा आपने
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