संगीत सरिता प्रवाह - प्रथम अंक

प्रथम अंक

      

 यदि हमारे पास वाणी न होती ,शब्द न होते , यह दुनियां गूंगी और बहरी होती तो कैसी लगती? यह सोच-सोच कर दिल बैठा जाता है ।वाणी रूपी वरदान हर एक जीव जंतु शरीर धारी और प्रकृति के कण-कण में विद्यमान है।या यू कहें कि यह प्रकृति जो कभी गूंगी बहरी और रंग हीन थी इसमें मधुर गूंज,और सुंदर रंग भरने का कार्य  वाणी द्वारा ही किया गया ।वाणी सरस्वती को भी कहा जाता है ।सरस्वती के प्रकट होते ही सृष्टि में चेतना का संचार हो गया। ध्वनियों का संचार हो गया और यह सृष्टि सजीव उठी।

कल कल निनाद कर उठीं नदियां, चहचहा उठीं चिड़ियां।

त्रिविध समीर सरसरा उठी,महक उठी नव कलियां।

दैदीप्यमान हो उठा जग सब, वाणी के पदार्पण से। 

पूजन अर्चन  ना जाने सरला , मां हो  प्रसन्न भावार्पण से।


विचारणीय है कि मां सरस्वती ,विद्या और संगीत की , सभी कलाओं की अधिष्ठात्री   हैं ।आखिर उनसे यह संगीत विद्या भूलोक तक कैसे पहुंची? यह प्रश्न अक्सर हमारे मन मस्तिष्क में उठते हैं। आइए जानते हैं स्वर्ग लोक से पृथ्वी लोक तक की संगीत सरिता  की कहानी। 

विभिन्नन प्रसिद्ध ग्रंथ -"संगीत मंजरी ,संगीत मंजूषा, राग परिवार (हरिश्चंद्र श्री  वास्तव जी) हिंदुतानी संगीत पद्धति क्रमिक पुस्तक मालिका,  भात खंडे संगीत, और संगीत विशारद,आदि विभिन्न ग्रंथों के अनुसार भारती शास्त्रीय संगीत परंपरा के प्रथम गुरु आदि देव महादेव रहे हैं।  महादेव ने यह विद्या ब्रह्मा जी से प्राप्त की। शिव ने शिला पर  शयन करती हुई मां पार्वती के शरीर की  मुद्रा ,संरचना के आधार पर  तुम्बा और बांस एवं अपने जटाओं से रुद्र  वीणा का निर्माण किया। यही रुद्र वीणा आगे परिष्कृत होकर दक्षिण भारत की  प्रसिद्ध रुद्र वीणा  बनी ।  ऐसा माना जाता है शंकर जी के पांच मुख होने के कारण प्रारंभ में पांच ही राग थे। शिव के पूर्व मुख, पश्चिम, उत्तर, मुख, और दक्षिण मुख, और आकाशोन्मुख होने से क्रमशः भैरव, हिंडोल,मेघ, दीपक और श्री राग प्रगट हुए, तथा पार्वती जी द्वारा  कौशिक राग  की उत्पत्ति हुई। श्री शिव प्रसाद स्त्रोत में ऐसा लिखा है। यही रुद्र वीणा सरस्वती जी के प्रकट होने पर महादेव ने उपहार में सरस्वती जी को प्रदान की । अर्थात महादेव  जी  सरस्वती जी के गुरु रहे। सरस्वती जी से नारद। नारद जी ने इस विद्या का प्रचार-प्रसार भूलोक में किया।  नारद जी भूलोक के प्रथम गुरु  है।नारद जी के साथ साथ  महाऋषि हनुमान और महा ऋषी भरत  का नाम विशेष उल्लेखनीय है। संगीत में जो 7 स्वर होते हैं, वह प्रकृति से लिए गए, 

1.मोर से -षडज( सा)

2.चातक से -रिषभ  (रे)

3. बकरा से- गांधार(ग)

 4.कौआ से- मध्यम (म)

5.कोयल से -पंचम (प)

6.मैढक से -धैवत (ध) 

7.हाथी से- निशाद (नि )

इस प्रकार सात स्वरों की उत्पत्ति हुई। 

वे मधुर ध्वनियां जो कानों एवं हृदय को आनंदित करें , स्वर, लय,ताल युक्त  रचनाएं संगीत कहलाती हैं। अर्थात - सुंदर मधुर गायन ,वादन ,और नर्तन, संगीत कहलाता है। पृथ्वी लोक में यदि सम्लित रूप से इस तरह के प्रथम संगीत गुरु की बात करें तो भगवान श्री कृष्ण का नाम अग्रणी है। 

रामायण और महाभारत काल में भारतीय संगीत के चरमोत्कर्ष के अनेक उदाहरण  महर्षि वाल्मीकि,और वेदव्यास जी ने प्रस्तुत किए हैं। महाभारत काल में भगवान श्री कृष्ण  संगीत के महान आचार्य थे। महाभारत काल में ही रासलीला नृत्य का निर्माण हुआ। सामान्य लोग भी संगीत से उतना ही प्रेम रखते थे जितना कि उच्च वर्गीय समाज ।महिलाएं पौराणिक काल से भी अधिक गाने और नाचने की अनुरागिनी हो गई थी ।इस समय लोगों को विश्वास हो गया था कि काम करते हुए संगीत का प्रयोग करने से काम की थकावट मानव के ऊपर अपना आधिपत्य नहीं जमा पाती ।इस काल के लोग प्रत्येक काम को  गाते बजाते हुए किया करते थे ।अनेकानेक विद्वानों का कथन है ,कि महाभारत काल का संगीत उत्तमता की  पराकाष्ठा पर पहुंच चुका था। श्रीकृष्ण की वंशी में विचित्र जादू था। श्री कृष्ण जैसा महान वंशी वादक आज तक नहीं उत्पन्न हुआ। श्री कृष्ण के अतिरिक्त अर्जुन भी संगीत के महान विद्वान थे। जब वे 1 वर्ष तक अज्ञात अवस्था में रहे थे तो उन्होंने विराट राजा के यहां बृहन्नला नाम रखकर उनकी पुत्री उत्तरा को संगीत की शिक्षा दी थी ।उन्हें कंठ संगीत (गायन) तथा वीणा वादन पर अधिकार था। एक विद्वान का कहना है कि महाभारत काल के वीर अर्जुन को हम नहीं भूल सकते। महाभारत कालीन संगीत के विकास में इस महान वीर का विशेष हाथ रहा। जिस प्रकार श्री कृष्ण का वंशी बजाने में अपना कोई प्रतिनिधि ही नहीं था ,ठीक उसी प्रकार वीर अर्जुन भी वीणा वादन में उस समय अपना कोई प्रतिद्वंदी नहीं रखते थे। वह वीणा और पखावज दोनों पर ही गाते थे।

वैदिक ग्रंथों में भी संगीत का परिचय मिलता है ।ऋग वेद में वीणा, मृदंग, वंशी, का उल्लेख है। प्रथम नांद( मधुर ध्वनि) भगवान शंकर के डमरू से निकली। सामवेद में तीन ही स्वरों का वर्णन है --उदात्त,अनुदात्त,और स्वरित , इन स्वरों में ही सामगायन की  परम्परा थी। आगे चलकर दो स्वर और गंधर्वों द्वारा जोड़े गये और प्रयोग और शोध करते करते शुद्ध रूप से सात और कुल शुद्ध और विकृत मिलाकर बारह स्वर हैं। जिन पर टिका   है विराट   संगीत जगत  । जहां से प्रवाहित हो उठी संगीत सरिता। जो युगों युगों तक अविरल बहती रहेगी।

आज की कड़ी में इतना ही ।🙏☺️

 इंतजार कीजिए अगली कड़ी का। जुड़े रहिए हमारे साथ । जिसमें जुड़ेंगी संगीत साधकों गुरुओं और परम्पराओं तथा संगीत इतिहास की अनेक कड़ियां।


सरला भारद्वाज। 🙏🙏☺️

 

 





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