प्रेम
प्रेम, प्यार ,इश्क ,और मुहब्बत,संयोग, वियोग,बिछुड़न और मिलन।
कुछ भी नहीं ,वास्तव में अपनी ही कल्पनाओं की दुनिया का शाब्दिक भ्रम ।
वास्तविकता ये है कि केवल और केवल ,अलग अलग रूप में खुद को ही चाहता है इंसान।।
आपकी आत्मा में बसा संगीत ,मोहन को ढूंढता है,
और ढूंढती है काव्य कल्पना मैथिलीशरण या सूर को।।
ज्ञान की पिपासा ढूढती है चाणक्य को।
संस्कारित सौंदर्य बोध तलाशता है कभी राम को कभी ज्ञानी वशिष्ठ को।
इन सब का मिला जुला आवरण ओढे देख ,किसी नट को प्रेम की मंज़िल मान लेता है मन।
जबकि प्रेम तो खुद से ही करता है मन।।
परिकल्पनाओं से परे ,आवरण के पीछे दिख जाता जब है वात्स्यायन,
बिखर जाता है संगीत,टूट जाता है मन का सितार।
हट जाता है भ्रम का पर्दा, पीड़ा जरुर होती है,पर,
खुद को ही चाहता रहा वह हमेशा ,जान जाता हैै इंसान।।
सरला भारद्वाज
21-12 20
रात्रि 1:20
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