""वृद्ध आश्रम" आखिर किस सभ्यता की देन? विचारणीय

  

लेखिका- सरला भारद्वाज(स्वतंत्र एवं मौलिक लेखन)


कौन होगा जो अपने परिवार अपने समाज तथा अपने देश को खुशहाल देखना ना चाहेगा  ?सभी चाहते हैं कि हमारा परिवार हमारा देश हमारा समाज खुश रहे ।पर सोचना यह है कि खुशहाली की नींव क्या है? क्या धन खुशहाली की नींव है? हां धन भी  खुशहाली की नींव है, परंतु केवल धन ही नहीं धन से भी महत्वपूर्ण है सभ्यता ।समाज में दृष्टि डाली जाए, तो पाएंगे कि बहुत से धनी व्यक्ति असीमित धन एवं भौतिक साधन होते हुए भी दुखी हैं ।जबकि बहुत से गरीब धन के अभाव में भी सभ्यता के बल पर धनी लोगों से अधिक सुखी हैं।

 किसी विद्वान ने लिखा था -

गो धन गज धन बाजधन और रतन धन खान।

 जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान।।

यह सत्य है कि संतोष धन से नहीं खरीदा जा सकता वह तो संस्कारों में मिलता है। सभ्यता से मिलता है। कोई माने या न माने पर यह परम सत्य है ,कि विकास की दौड़ में हमारा देश भले ही बहुत आगे जा रहा है ,परंतु सभ्यता जैसे युवा वर्ग के बीच से गायब होती जा रही है। आज के भौतिकवादी युग में हर तरफ स्वार्थ का ही बोलबाला है ।आज सुख शांति मान सम्मान  कपूर की स्थिति में है। न जाने कब गैस बन कर उड़ जाए। जिसका मूल कारण मात्र भारतीय जीवन मूल्यों का पतन है। और मूल्यों के पतन की मुख्य जड़ है पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण तथा स्वार्थ । आज अधिकांश की सयानी बुद्धि झूठ कपट धोखाधड़ी विश्वासघात जैसे भयंकर हथियारों का प्रयोग कर रही है ।बड़ी से बड़ी हस्तियों को भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जा रहा है ,कुछ बगुला भगत तो आदर्शों के खोखले ढोल पीटकर ही समाज को ठगना चाहते हैं समाज की आंखों में धूल झोंकना चाहते हैं।परंतु पकड़े जाने पर भी शर्म बिल्कुल नहीं। शर्म मानो उतारकर खूंटी पर टांग दी है। या फिर यूं कहिए कि शर्म नाम का कोई शब्द उनके शब्दकोश में है ही नहीं । उनके लिए यह शब्द जैसे अनावश्यक और व्यर्थ है ।आज एक खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो गई है। अपने आप को बहुत बुद्धिमान मान लेने की प्रवृत्ति और अधिक असभ्यता के अंतिम छोर तक ले जा सकती है। अपनी स्थिति को शेर का सौमन दिखाना यह प्रदर्शन करना मूर्खता नहीं तो और क्या है? अन्य भी बातें हैं ,परंतु यह बातें हमें और हमारी संतान को पतन की ओर ले जा रही है। जो बच्चे कल के देश के कर्णधार हैं उन्हें कर्म की जगह आराम और हराम का मार्ग हम ही तो दिखा रहे हैं।  उदासीनता और अधिकारों के प्रति आकर्षण का मार्ग हम ही तो उन्हें दिखा रहे हैं, और जब वह भस्मासुर की तरह अपना क्रूर पंजा हमारे ही सिर पर जड़ते हैं, तो रोने और मरने के सिवाय दूसरा चारा नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में जाएं तो कहां ? वृद्ध आश्रम ही सही ,और चारा भी क्या है? यह हाल सभ्य और पढ़े-लिखे दर्शाने वाले लोगों का है। धन से सक्षम परिवारों का है। बड़े-बड़े महानगरों का है खास तौर से नौकरियों से निवृत वृद्धों का है।गांव का वृद्ध ,वृद्धआश्रम में शायद ही हो ।गांव के लोगों के लिए तो यह डूब मरने वाली बात है ,कि औलाद के होते हुए बुजुर्ग अनाथों की तरह वृद्ध आश्रम में रहें। वृद्ध आश्रम के विषय में सोचने की बात तो दूर, वह बेचारे तो यह भी नहीं जानते कि वृद्ध आश्रम होता क्या है? और क्या उसकी व्यवस्था है ?हां उन्हें दिवाली के अवसर पर आप गाते अवश्य पाएंगे-

आई है दिवाली खटखटाये सूप

गोधन धर गए द्वारा पै  

मोहि तौ और अन्न महा दुख है 

पूत बुढ़ापे कू चहियत  है।

वहां तो रुखा सुखा अदधपेटा  खाकर, फटे पुराने कपड़े पहन कर भी वृद्ध खुश नजर आते हैं ।अपने बच्चों से सम्मान पाकर ही वह इस दुनिया को छोड़ते हैं, और अपनी चौखट पर ही अपना दम तोड़ते हैं। जिसमें वह अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं।वृद्ध आश्रम की व्यवस्था कितनी ही अच्छी क्यों ना हो परंतु भावनात्मक दृष्टि से इनमें रहने वाले वृद्धों की स्थिति भिखारी से कम नहीं। वृद्ध आश्रमों को स्थापित करने वाले अपनी पीठ अपने आप भले ही थपथपा लें ,परंतु यह वृद्ध आश्रम हमारे पढ़े लिखे समाज को और अधिक नीचे गिराने की प्रेरणा दे रहे हैं। वृद्धों की मृत्यु का शीघ्र अति शीघ्र इंतजार करने वाले उनके अपने ही हैं ।जो लाख बहाने बनाकर उन्हें वृद्ध आश्रम में फेंक आते हैं ।या कटुवाणियों का स्वाद चखते चखते  वृद्ध सहज रूप से खुद को वृद्ध आश्रमों में अधिक सुखी महसूस करते हैं ,और  रात दिन सोते जागते इन्हीं विचारों में खोए रहते हैं कि, मैंने इनके साथ क्या किया था ?और यह मेरे साथ क्या कर रहे हैं? भारत में यह असभ्यता पूर्ण गंदी हवा आई कहां से? यह भारतीय सभ्यता तो नहीं हो सकती ।भारतीय खून की झलक तो यह है-

"पानी परात को हाथ क्यों नहीं नैनन के जल सो पग धोए।"

राजा होते हुए भी कृष्ण भिखारी सुदामा की सेवा में अपने आंसुओं से पांव धो रहे हैं। भारत की सभ्यता तो यही है ,और इसका बड़ा महत्त्वपूर्ण रहस्य है।

 इस देश में तो वृद्धों की पूजा  करते थे। यहां के लोग तो बड़े बुजुर्गों की सेवा को अपना सौभाग्य समझते थे ।इस देश में तो पहले वृद्ध आश्रम नहीं थे ।

हमारे ग्रंथ कहते हैं-

माना कि सभी राम भरत और दशरथ नहीं हो सकते, पर उनके पद चिन्हों पर चलने का प्रयास तो किया जा सकता है ।यह क्या कि हम अपने बुजुर्गों के शीघ्र मरने का इंतजार करने लगे हैं ।हमारे भारतीय खून में यह सब तो नहीं था। तो क्या आज हमारा खून बदल चुका है ?जो सेवा भाव की जगह घृणा करने लगा है। यह प्रदूषण भारतीय तो नहीं हो सकता। भारतीय खून की झलक तो कृष्ण और सुदामा के रिश्ते में हैं। गीध जटायु और राम के सेवा भाव में है ।मानो या ना मानो भारतीय सभ्यता तो यही है । और इसी में बड़ा आनंद है। दावा है ऐसा व्यवहार भारत के सिवाय अन्य किसी देश में न होगा । कुछ परिवारों में यह व्यवहार यह सभ्यता आज भी जिंदा है। धन्य हैं वे परिवार, धन्य हैं वे वृद्ध, जिन्होंने अपने बच्चों को ऐसे संस्कारों में बांधा है।इसकी झलक आज भी गांव में देखी जा सकती है ।यही भारत की सभ्यता है और यही जीवन का सार है।

वंदे मातरम्।


Comments

  1. अति उत्तम लेख 🙃

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  2. अति उत्तम लेख अति उत्तम लेख

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    1. मर्म स्पर्शी लेख परन्तु आज के समाज के परिपेक्ष्य में यही यथार्थ है

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  3. मेम बहुत सुंदर

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