वह आनंदकंद श्री कृष्ण ही थे जिन्होंने जसराज को पंडित जसराज बनाया

वृंदावन की अनुभव संगीत बैठकी में भारत के तमाम जाने-माने संगीतज्ञ बैठे थे, जिनमें पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी पंडित शिव प्रसाद जी सुरेश वाडेकर जी अनेकानेक उदभट्विद्वान थे । पंडित जी गाते गाते बीच-बीच में अपने जीवन के अनेक अनुभव साझा करते जा रहे थे। संगीत प्रेमी उन से तरह-तरह प्रश्न पूछ रहे थे ,और वह बड़ी ही सहजता और सरलता से विनम्रता से विनोद से उत्तर देते चले जा रहे थे ।पंडित जसराज जी ने अपने जीवन का एक अद्भुत प्रसंग संगीत प्रेमियों को साझा किया। पंडित जी ने "नैया लगा दो मेरी पार" जैसे ही खत्म किया ,वैसे ही एक श्रोता ने अध्यात्म से संबंधित ,श्री कृष्ण से संबंधित प्रश्न पूछा।पंडित जी ने जो अनुभव साझा किया वह बड़ा ही विस्मित करने वाला चमत्कृत करने वाला और अगाध श्रद्धा का परिचायक है। पंडित जी ने बताया कि वह बहुत छोटे थे। जब केवल वे सरगम ही सीख रहे थे ,सारेगामापा मात्र  ही उनको ज्ञान था ।तब वे हनुमान जी के उपासक थे ।₹1 का पेड़ा लाकर हनुमान जी का भोग लगाते थे ।शनिवार और मंगलवार का व्रत रखते थे। बचपन में एक रात उन्होंने एक स्वप्न देखा आभा से युक्त नंग धड़ंग बाल श्री कृष्ण राजा महाराजाओं की भांति दरबार सजाए बैठे हैं ,और बहुत सारे संगीतज्ञ और राजे महाराजे उनके सामने लाइन से बैठे हैं ,और छोटा बालक जसराज कृष्ण के बिल्कुल सम्मुख बैठा है। कृष्ण ने अपना बाया हाथ उठाते हुए कहा जसराज यह पूजा अर्चना तो इन लोगों का काम है ,तू तो बस गा। सभी संगीत प्रेमी राजे महाराजे सिर झुकाए बैठे थे और बार-बार भगवान श्री कृष्ण एक ही बात कह रहे थे, जसराज बस तू गा, यही सच्ची साधना है यही सच्चा अध्यात्म है। स्वप्न का अनुभव साझा करते हुए पंडित जसराज जी बताया कि उस समय तक उन्होंने श्री कृष्ण का चित्र भी नहीं देखा था। कल्पना भी नहीं थी श्री कृष्ण के रूप स्वरूप की। उन्होंने कहा- मैं केवल हनुमान का उपासक था। कुछ सालों बाद पंडित जी गाने बजाने के बाद अपने मित्र के यहां गए मित्र ने भोजन के लिए आमंत्रित किया अंदर बैठक में आने के लिए कहा। पंडित जी जब मित्र के बैठक में जाते हैं तो वहां जाकर देखते हैं सालों पुराने स्वप्न का वही चित्र जो चित्र उन्होंने स्वप्न में देखा था नंग धड़ंग बाल श्री कृष्ण आभा युक्त ,श्री कृष्णा राजे महाराजे जैसे श्री कृष्ण।हुबहू वही चित्र जो उन्होंने स्वप्न में देखा था।

उन्होंने अपने मित्र से पूछा यह क्या है ?कहां से आया? मित्र ने उत्तर दिया यह हमारे कुल आराध्य भगवान श्री कृष्ण का चित्र है । लगभग 250 साल पुराना है ।ढाई सौ साल से इसी दीवार पर लगा है ।पंडित जी ने कहा पर यह मुझे पसंद है ।मित्र ने उन्हें वह चित्र भेंट में दिया। पंडित जी उसकी उपासना करने लगे, संगीत के माध्यम से। एक बार बारिश आने पर सारे चित्र भीगने लगे वह चित्र क्योंकि बहुत बड़ा चित्र था दीवार से हटा पाना संभव ना हुआ ,और वह भीग कर खराब हो गया ।जिसका पंडित जी को बहुत पछतावा था। 1 साल के बाद पंडित जी का केरला में एक प्रोग्राम था जहां उनके प्रोग्राम के बाद उनके साथी ने कहीं चलने के लिए कहा। एक मंदिर में दर्शन करने के बाद पंडित जी जब बाहर आए तो उनके पास एक साथ 8 साल का बालक आया, वही चित्र लेकर पंडित जी अवाक थे ।उन्होंने कहा अरे तुम तो आ गए ।बालक ने कहा हां मैं आपको यह चित्र देने आया हूं ।पंडित जी ने कहा ठीक है बताओ इसका दाम कितना है ?हाथ में वह तस्वीर लेते हुए ही जैसे ही उन्होंने तस्वीर को माथे से लगाया और जेब में पैसे देने के लिए हाथ डाले ,देखा सामने वह बालक न था। वह गायब हो चुका था ।पंडित जी का मानना है कि वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे जो उनके पास आए थे। उन्होंने स्वयं कहा जब जब मैंने कृष्ण से कहा कि यह क्या हो रहा है? तुम मेरा साथ क्यों नहीं देते? तब तब भगवान श्री कष्ण ने उन्हें स्वप्न में आकर कहा मैं तो तेरे साथ ही हूं रे। सच है सुरों की साधना से सब संभव है वास्तव में सुरही सबसे सच्ची साधना है जिससे ईश्वर का साक्षात साक्षात्कार संभव है। परंतु दुर्भाग्य है इस भारत का स्वरों की साधना में रत कुछ लोग फिल्मी गानों को ही सुरों की साधना मानते हैं ,और अपनी दबी कुचली कुवृत्तियों को परपोषितकरने का माध्यम टटोलते हैं । लाफिंग शो और संगीत के नाम पर मंचों से जो मनोरंजन परोसा जाता है उसे देखकर या सुनकर दुहाई देनी पड़ती है उनके विवेक की और सूज बूझ की ।छोटे छोटे बालकों से ऐसे ऐसे गीत गवाते  हैं कि बचपन में ही उनकी मानसिकता विकृत हो जाए। संस्कार युक्त देश गीत ,गाना भजन गाना जैसे फिल्मों की हिस्से ही नहीं। से फिल्मी गीतों को गाना उनके लिए शर्म की बात होती है। जिसे वह पुरानी और बेकार चीज समझते हैं।जिनमें उन्हें सांप्रदायिकता दिखाई देती है ।जिससे वह अपने आप को फैशन के नाम पर दूर करते चले जा रहे हैं ,और आधुनिक और अपडेट होने का ढोंग रच रहे हैं। इस तरह की कुत्सित मानसिकता के कारण ही अकबर  के काल को छोड़कर मुगल काल में संगीत की जो दुर्गति हुई उसे कौन नहीं जानता है? सरस्वती कोने में कराह रही थी ?संगीत केवल अय्याशी और विलासिता का साधन बनकर रह गया था। कोई भी सभ्य परिवार अपने बालकों को संगीत के क्षेत्र में जाने नहीं देना चाहता था। वह एक हेय कला बन गई थी। जिसे बहुत हीनता भरी दृष्टि से देखा जाता था। संगीत केवल मी राशियों और फोटो की शान बन कर रह गया था।कोने में कराहती सरस्वती को पुनः उस सिंहासन पर बिठाने का जो महान कार्य किया, रागों में नई-नई जो बंदिशें  जिन्होंने रची ,वे पंडित जसराज की ही विचारधारा के व्यक्ति थे। चाहे वह विष्णु दिगंबर पलुस्कर रहे हो, या भातखंडे या फिर कुमार गंधर्व। जिन्होंने हिंदुस्तानी संगीत को पुनः प्राणवायु देने का कार्य किया।इस प्राणवायु मैं पुनः विश्व गुरु था जा रहा है, जिसका शुद्धीकरण आवश्यक है, अन्यथा प्रदूषण का परिणाम तो सभी जानते ही हैं।

मित्रों पंडित जी के इस प्रसंग में इस अनुभव ने मुझे भाव विभोर कर दिया और मैं लिखने के लिए मजबूर हो गई कौन कहता है किस संगीत से ईश्वर साक्षात्कार संभव नहीं है? संगीत स्वयं में ही ईश्वर है?परम आनंद की अनुभूति ही ईश्वर का दूसरा नाम है। कहने वाले कहते हैं कि भला तानसेन दीपक राग गाकर दीपक कैसे  दीपक जला देते होंगे? परंतु वास्तव में सच्ची लगन से सब संभव है। सूरदास स्वयं कहते हैं ""बहरो सुनै ,मूक पुनि  बोले रंक चलै सिर छत्र धराई।" सच्चे सुरों से सब कुछ संभव है और ऐसे सच्चे साधकों को महा नायकों को मेरा कोटि-कोटि नमन है। श्रद्धा सुमन अर्पित है। ं

साभार-

सरला भारद्वाज

हिंदी टीजीटी 

सरस्वती विद्या मंदिर कमला नगर आगरा

Comments

  1. यूट्यूब पर यह एक वीडियो उपलब्ध हुई थी जिसे देखकर मैंने यह पोस्ट साझा की

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