वाख,9th ( ललद्य)


1


रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव ।


जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।


पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।


जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।।


शब्दार्थ–नाव-शरीर रूपी नाव । देव-प्रभु, ईश्वर। भवसागर-संसार रूपी सागर । कच्चे सकोरे-मिट्टी का बना छोटा पात्र जिसे पकाया नहीं गया है। हूक-तड़प, वेदना। चाह-चाहत, इच्छा। 


भावार्थ : कवयित्री कहती है कि वह अपने साँसों की कच्ची रस्सी की सहायता से इस शरीर-रूपी नाव को खींच रही है। पता नहीं ईश्वर मेरी पुकार सुनकर मुझे भवसागर से कब पार करेंगे। जिस प्रकार कच्ची मिट्टी से बने पात्र से पानी टपक-टपककर कम होता रहता है, उसी तरह समय बीतता जा रहा है और प्रभु को पाने के मेरे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं। कवयित्री के मन में बार-बार एक ही पीड़ा उठती है कि कब यह नश्वर संसार छोड़कर प्रभु के पास पहुँच जाए और सांसारिक कष्टों से मुक्ति पा सके।  


शब्दार्थ–अहंकारी-अभिमानी, घमंडी। सम-इंद्रियों का शमन। समभावी-समानता की भावना। साँकल-जंजीर। 

भावार्थ-कवयित्री मनुष्य को मध्यम मार्ग को अपनाने की सीख देती हुई कहती है कि हे मनुष्य! तुम इन सांसार की भोग विलासिताओं में डूबे रहते हो, इससे तुम्हें कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। तुम इस भोग के खिलाफ यदि त्याग, तपस्या का जीवन अपनाओगे तो मन में अहंकार ही बढ़ेगा। तुम इनके बीच का मध्यम मार्ग अपनाओ। भोग-त्याग, सुख-दुख के मध्य का मार्ग अपनाने से ही प्रभु-प्राप्ति का बंद द्वार खुलेगा और प्रभु से मिलन होगा। 

 3


आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।


सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!


जेब टटोली, कौड़ी न पाई।


माझी को दूँ, क्या उतराई?


 


शब्दार्थ–राह-रास्ता। सुषुम-सुषुम्ना नामक नाड़ी। टटोली-खोजा। कौड़ी न पाई-कुछ भी न मिला। माँझी-नाविक (प्रभु)। उतराई-पार उतारने का किराया। 


भावार्थ-कवयित्री कहती है कि प्रभु की प्राप्ति के लिए वह संसार में सीधे रास्ते से आई थी किंतु यहाँ आकर मोहमाया आदि सांसारिक उलझनों में फंसकर अपना रास्ता भूल गई। वह जीवन भर सुषुम्ना नाड़ी के सहारे कुंडलिनी जागरण में लगी रही और इसी में जीवन बीत गया। जीवन के अंतिम समय में जब उसने जेब में खोजा तो कुछ भी हासिल न हुआ। अब उसे चिंता सता रही है कि भवसागर से पार उतारने वाले प्रभु रूपी माँझी को उतराई (किराया) के रूप में क्या देगी। अर्थात् वह जीवन में कुछ न हासिल कर सकी। 


थल-थल में बसता है शिव ही,


भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।


ज्ञानी है तो स्वयं को जान,


वही है साहिब से पहचान।


 शब्दार्थ–बल-जमीन, स्थान। शिव-प्रभु। साहिब-ईश्वर। 


भावार्थ-ईश्वर की सर्वत्र (सभी जगह) उपस्थिति के बारे में बताती हुई कवयित्री कहती है कि वह हर स्थान पर व्याप्त है। हे मनुष्य! तू धार्मिक आधार पर हिंदू-मुसलमान का भेदभाव त्यागकर उसे अपना ले। ईश्वर को जानने से पहले तू खुद को पहचान, अपना आत्म-ज्ञान कर, इससे प्रभु से पहचान आसान हो जाएगी। अर्थात् ईश्वर ही तो आत्मा रूप में हम सभी में निवास करता है।


 प्रश्न एक

रस्सी शब्द यहां पर किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?

उत्तर-रस्सी शब्द यहां सांसो के लिए प्रयुक्त हुआ है। जो कच्ची हैं , जिस तरह कच्चे धागों की बनी रस्सी कमजोर होती है ।उसका कोई भरोसा नहीं होता है ठीक उसी तरह सांसो का कोई भरोसा नहीं है।

प्रश्न दो

कवियत्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जाने वाले प्रयास किस प्रकार व्यर्थ हो रहे हैं?

उत्तर - कवयित्री द्वारा किए जाने वाले प्रयास उसी तरह व्यर्थ हो रहे हैं जिस तरह कच्चे सकोरे में पानी भरना व्यर्थ होता है।

प्रश्न 3 कवित्री का घर जाने की चाह से क्या तात्पर्य है?

 उत्तर . कवयित्री का घर जाने की चाहत से तात्पर्य है ईश्वर से मिलन ।कववित्री ने यहां ईश्वर को अपना पति माना है ,और स्वर्ग उसको ससुराल और आत्मा को पत्नी, इस प्रकार वह स्वर्ग जाना चाहती है ।मोक्ष प्राप्त करना चाहती है।


प्रश्न 4. भाव स्पष्ट करें-

(क)जेब टटोली कौड़ी न पाई ।

(ख )खा खा कर कुछआएगा नहीं, ना खाकर बनेगा अहंकारी।

उत्तर -भावार्थ-

(क) प्रस्तुत पंक्ति का भाव है- संसार रूपी भवसागर से पार उतरने के लिए ईश्वर रूपी मांझी, पुण्य रूपी कौड़ी मांगता है। पुण्य रूपी मुद्रा मांगता है। अतः संसार में आकर जीवात्मा को पुण्य कमाने चाहिए ।यदि व्यक्ति पुण्य नहीं कमाता है, तो मोक्ष प्राप्त करना संभव नहीं ।कवयित्री ने यहां कहा है, अंतिम समय पर मैंने अपनी अंतरात्मा को टटोल कर देखा, तो मेरे पास पुण्य रूपी कौड़ी नहीं थी, अब मैं ईश्वर रूपी माझी को उतराई में क्या दूं।

(ख) प्रस्तुत पंक्ति का भाव है-

इस पंक्ति के माध्यम से कवित्री ने मध्यम मार्ग अपनाने की बात कही है ।अर्थात भोग विलास करके कुछ प्राप्त होना नहीं है। और सब कुछ त्याग करने के बाद अहंकार उत्पन्न हो जाता है ।अतः भोग विलास से विरक्ति और अहंकार रहित त्याग की बात कवित्री ने इस पंक्ति में कही है ।यह त्याग करने के बाद अहंकार ना हो दुनिया के लोगों को अपने से छोटा ना समझे अपने को बड़ा न समझें ,उच्च साधना के बाद भी हम अपने आप को साधारण समझें, और सभी से समानता का व्यवहार करें।


प्रश्न .5. बंद द्वार की सांकल खोलने के लिए ललद्य ने क्या उपाय बताए हैं?

उत्तर-

बंद द्वार के सांकल खोलने के लिए कवयित्री ने उपाय बताया है कि हमें लोगों के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए ।ऊंच-नीच की भावना त्याग देनी चाहिए। तभी ज्ञानरूपी दरवाजे खुलते हैं ,और वही सच्चा ज्ञानी कहलाता है जो सब के साथ समानता का व्यवहार करता है।


प्रश्न .6. ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी कठिन साधना भी करते हैं, लेकिन उससे भी लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है?

उत्तर-हटा योग साधना के भाव निम्नलिखित पंक्तियों में हैं-

सुसुम सेतु पर खड़ी थी बीत गया दिन आह।

रस्सी कच्चे धागे की खींच रही मैं नाव।

प्रश्न 7.ज्ञानी से कवयित्री क्या अभिप्राय है?

उत्तर -ज्ञानी से कवयित्री का अभिप्राय है- ऐसा व्यक्ति जो हिंदू और मुसलमान में भेद नहीं करता, सबके साथ समानता का व्यवहार करता है ।सृष्टि के कण-कण में कल्याणकारी ईश्वर को खोजता है। अर्थात स्वयं को पहचानना ही सच्चा ज्ञान है।

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